सोमवार, 22 अगस्त 2011

मुनादी


आपातकाल के दौरान धर्म वीर भारती की ये कविता मुनादी जो वर्तमान सन्दर्भों में भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि आपात काल के दौर में थी उसी कविता कि पुनरावृत्ति.......
धर्म वीर भारती 

खलक खुदा का, मुलुक बाश्शा का
हुकुम शहर कोतवाल का
हर खासो-आम को 
आगाह  किया जाता है
कि खबरदार रहें
और अपने-अपने किवाड़ों को अन्दर से
कुंडी चढा़कर बन्द कर लें
गिरा लें खिड़कियों के परदे
और बच्चों को बाहर सड़क पर न भेजें
क्योंकि
एक बहत्तर बरस का बूढ़ा आदमी अपनी काँपती कमजोर आवाज में
सड़कों पर सच बोलता हुआ निकल पड़ा है

पटना के गाँधी मैदान में जेपी




शहर का हर बशर वाकिफ है
कि पच्चीस साल से मुजिर है यह
कि हालात को हालात की तरह बयान किया जाए
कि चोर को चोर और हत्यारे को हत्यारा कहा जाए
कि मार खाते भले आदमी को
और असमत लुटती औरत को
और भूख से पेट दबाये ढाँचे को
और जीप के नीचे कुचलते बच्चे को
बचाने की बेअदबी की जाये
जीप अगर बाश्शा की है तो
उसे बच्चे के पेट पर से गुजरने का हक क्यों नहीं ?
आखिर सड़क भी तो बाश्शा ने बनवायी है !

बुड्ढे के पीछे दौड़ पड़ने वाले
अहसान फरामोशों ! क्या तुम भूल गये कि बाश्शा ने
एक खूबसूरत माहौल दिया है जहाँ
भूख से ही सही, दिन में तुम्हें तारे नजर आते हैं
और फुटपाथों पर फरिश्तों के पंख रात भर
तुम पर छाँह किये रहते हैं
और हूरें हर लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी
मोटर वालों की ओर लपकती हैं
कि जन्नत तारी हो गयी है जमीं पर;
तुम्हें इस बुड्ढे के पीछे दौड़कर
भला और क्या हासिल होने वाला है ?


आखिर क्या दुश्मनी है तुम्हारी उन लोगों से
जो भलेमानुसों की तरह अपनी कुरसी पर चुपचाप
बैठे-बैठे मुल्क की भलाई के लिए
रात-रात जागते हैं;
और गाँव की नाली की मरम्मत के लिए
मास्को, न्यूयार्क, टोकियो, लन्दन की खाक
छानते फकीरों की तरह भटकते रहते हैं…


अन्ना हजारे और उनके सहयोगी 
तोड़ दिये जाएँगे पैर
और फोड़ दी जाएँगी आँखें
अगर तुमने अपने पाँव चल कर
महल-सरा की चहारदीवारी फलाँग कर
अन्दर झाँकने की कोशिश की

क्या तुमने नहीं देखी वह लाठी
जिससे हमारे एक कद्दावर जवान ने इस निहत्थे
काँपते बुड्ढे को ढेर कर दिया ?
वह लाठी हमने समय मंजूषा के साथ
गहराइयों में गाड़ दी है
कि आने वाली नस्लें उसे देखें और
हमारी जवाँमर्दी की दाद दें

अब पूछो कहाँ है वह सच जो
इस बुड्ढे ने सड़कों पर बकना शुरू किया था ?
हमने अपने रेडियो के स्वर ऊँचे करा दिये हैं
और कहा है कि जोर-जोर से फिल्मी गीत बजायें
ताकि थिरकती धुनों की दिलकश बलन्दी में
इस बुड्ढे की बकवास दब जाए

नासमझ बच्चों ने पटक दिये पोथियाँ और बस्ते
फेंक दी है खड़िया और स्लेट
इस नामाकूल जादूगर के पीछे चूहों की तरह
फदर-फदर भागते चले आ रहे हैं
और जिसका बच्चा परसों मारा गया
वह औरत आँचल परचम की तरह लहराती हुई
सड़क पर निकल आयी है।

ख़बरदार यह सारा मुल्क तुम्हारा है
पर जहाँ हो वहीं रहो
यह बगावत नहीं बर्दाश्त की जाएगी कि
तुम फासले तय करो और
मंजिल तक पहुँचो

इस बार रेलों के चक्के हम खुद जाम कर देंगे
नावें मँझधार में रोक दी जाएँगी
बैलगाड़ियाँ सड़क-किनारे नीमतले खड़ी कर दी जाएँगी
ट्रकों को नुक्कड़ से लौटा दिया जाएगा
सब अपनी-अपनी जगह ठप
क्योंकि याद रखो कि मुल्क को आगे बढ़ना है
और उसके लिए जरूरी है कि जो जहाँ है
वहीं ठप कर दिया जाए

बेताब मत हो
तुम्हें जलसा-जुलूस, हल्ला-गूल्ला, भीड़-भड़क्के का शौक है
बाश्शा को हमदर्दी है अपनी रियाया से
तुम्हारे इस शौक को पूरा करने के लिए
बाश्शा के खास हुक्म से
उसका अपना दरबार जुलूस की शक्ल में निकलेगा
दर्शन करो !

वही रेलगाड़ियाँ तुम्हें मुफ्त लाद कर लाएँगी
बैलगाड़ी वालों को दोहरी बख्शीश मिलेगी
ट्रकों को झण्डियों से सजाया जाएगा
नुक्कड़ नुक्कड़ पर प्याऊ बैठाया जाएगा
और जो पानी माँगेगा उसे इत्र-बसा शर्बत पेश किया जाएगा
लाखों की तादाद में शामिल हो उस जुलूस में
और सड़क पर पैर घिसते हुए चलो
ताकि वह खून जो इस बुड्ढे की वजह से
बहा, वह पुँछ जाए

बाश्शा सलामत को खूनखराबा पसन्द नहीं


 

शनिवार, 23 जुलाई 2011

आज की फिल्मों का दर्शक वर्ग

 भारतीय फिल्मों का इतिहास लगभग ९० साल पुराना है। इन ९० सालों में भारतीय सिनेमा ने बहुतेरे उतार- चढाव देखे । अपनी प्रयोगधर्मिता के लिए जाने  जाने वाले  भारतीय सिनेमा ने समय और दर्शकों के हिसाब से फिल्मों में नए नए प्रयोग किये ।  इन प्रयोगों को आवश्यकतानुसार दर्शकों ने सराहा भी और समय आने पर इन प्रयोगों की आलोचना करने में भी पीछे नहीं रहे  । प्रयोगधर्मिता का ये दौर भारतीय फिल्मों के पितामह दादा साहब  फाल्के के ज़माने में भी था और आज के फिल्म जगत के  मिस्टर परफेकसनिस्ट  आमिर खान के ज़माने में भी ये परंपरा बदस्तूर  कायम है लेकिन इन सभी प्रयोगों ने एक और  बदलाव किया है । ये बदलावहै दर्शकों के वर्गीकरण का । 
 इस बदलाव ने दर्शकों को भी दो भागों में वर्गीकृत कर दिया है लेकिन ये वर्गीकरण उनकी सोच और समझ के आधार पर नहीं बल्कि उनकी आर्थिक हैसियत के आधार पर किया गया है। उदारीकरण से पहले जब किसी ने मल्टीप्लेक्स का नाम भी नहीं सुना था तब फिल्म बनाने का उदेश्य सामाजिक सरोकारों के साथ साथ दर्शकों का मनोरंजन करना और समाज में आ रहे बदलावों को बड़े परदे के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना था। उनके इस उदेश्य के पीछे एक नजरिया होता था, एक सोच होती थी  लेकिन आज फिल्मों को बनाने के पीछे का मकसद ही बदल गया है। आज फिल्म जगत में भी दो  अलग -अलग वर्ग हैं जो अपना अपना दर्शक वर्ग तलाश कर उनके लिए सिनेमा बनाते हैं । सबसे बड़ा वर्ग उन फिल्मकारों का  हैं  जिन्होंने प्रयोगधर्मिता का चोला ओढ़ रखा है । इस चोले के  साये तले वो ऐसी फिल्मे बना रहे हैं जिनका दर्शक वर्ग मल्टीप्लेक्स में बर्गर और पापकार्न खा रहा एलिट क्लास होता है। ये फ़िल्मकार उन्ही के लिए सिनेमा बनाते हैं और उनके पैसे से अपनी फिल्मों की लागत वसूल कर उसे हिट करार  दे देते हैं। इन फिल्मों का  दर्शक वर्ग कितना बड़ा है इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं है बल्कि उन्हें तो अपनी लागत  का दोगुना - तीनगुना मिल जाये बस इसी की दरकार है। आज की फिल्म आम भारतीय का मनोरंजन करे या ना करे , वो मल्टीप्लेक्स में बैठे लोगों के टेस्ट के अनुरूप है तो सब ठीक नहीं तो ऐसी फ़िल्में मार्केट से आउट। हालिया उदहारण डेल्ही बेल्ही है जिसे देखने मल्टीप्लेक्स में तो लोगों की भीड़ जुटी लेकिन सिंगल `स्क्रीन के दर्शकों (छोटे शहरों  और कस्बों के दर्शकों ) ने नकार दिया । बावजूद इसके फिल्म ने मल्टीप्लेक्स की बदौलत कमाई की और सुपरहिट के खाते में दर्ज हो गई । 25 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने पहले ही सप्ताहांत में 36 करोड़ की कमाई कर ली थी । इस कमाई का पूरा लेखा-जोखा देखें तो तस्वीर खुद-ब-खुद सामने आ जाती है.
मुंबई और दिल्ली  जहां मल्टीप्लेक्स की भरमार है वहां इस फिल्म ने सप्ताहांत में क्रमशः 8.24 करोड़ रुपये और4.64  करोड़ का कारोबार किया लेकिन सिंगल स्क्रीन थियेटर वाले राज्यों पश्चिम बंगाल और बिहार में इसकी कमाई  क्रमशः 99 लाख और 20 लाख रही । मतलब साफ है कि  जहां इस फिल्म को मल्टीप्लेक्स थियेटर में 70-80 फीसदी दर्शक मिले वही सिंगल स्क्रीन थियेटर में इसे महज ३०-४० फीसदी दर्शक मिले
यह फिल्म  एक उदाहरण  मात्र है । आज कल ऐसी फिल्मों की बॉलीवुड में बाढ़ सी आ गई है। ये साली ज़िन्दगी, 7 खून माफ़, ज़िन्दगी ना मिलेगी दुबारा और शैतान इसी श्रेणी में रखी जाने लायक फ़िल्में हैं। दूसरी तरफ वांटेड ,दबंग,गोलमाल , रेडी और सिंघम जैसी फिल्मों की सिंगल स्क्रीन थियेटर से लेकर मल्टीप्लेक्स थियेटर के बीच लोकप्रियता की कहानी से कोई भी अनजान नहीं है। लोकप्रियता के मामले में देल्ली बेल्ली रेडी के आस -पास भी नहीं फटकती है लेकिन इसका आर्थिक पहलू कुछ दूसरी तस्वीर ही बयान करता है। रेडी जैसी फिल्म  जिसकी लागत 50 करोड़ रुपये है, अपने सप्ताहांत में 41 करोड़ की कमाई करती है ।  ये आकडे तस्वीर की हकीकत बयान करने के लिए काफी हैं कि मात्र 25करोड़ की लागत से एक सप्ताह में 36 करोड़ कमाया जा रहा है और 50 करोड़ लगाने पर एक सप्ताह में मिल रहा है मात्र 41 करोड़ । फिर क्यों ना 25 करोड़ वाली फिल्मों की बाढ़ आए

एक औसत सिंगल स्क्रीन थियेटर में फिल्म देखने के लिए दर्शकों को लगभग 50 रुपये चुकाने पड़ते हैं। .इसके अलावा उसे उस थियेटर में खाने के लिए मुश्किल  से बिस्किट या चिप्स मिलता है जिसकी कीमत 5-10 रुपये होती है । वही दूसरी तरफ मल्टीप्लेक्स थियेटर की औसत टिकट की कीमत लगभग 200 रुपये होती है और खाने को मिलता है पिज्जा ,बर्गर और पापकार्न जिसकी लागत लगभग 100-150 रुपये होती है। इसका सीधा -सीधा मतलब ये है कि मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने वाले की हैसियत ,सिंगल स्क्रीन थियेटर में फिल्म देखने वाले की लगभग 4 गुनी है । इसे दूसरे शब्दों में कहे तो सिंगल स्क्रीन थियेटर की फिल्मों की तुलना में मल्टीप्लेक्स में लगने वाली फिल्मों की सफलता लगभग 4 गुनी हो जाती है। ऐसे हालात में जब फिल्मकारों के ऊपर विशुद्ध मुनाफाखोरी हावी हो जाये तो जाहिर सी बात है कि वो मल्टीप्लेक्स के लिए ही फिल्म बनायेंगे । आखिर सफलता (मुनाफा ) जो चार गुनी है
फ़िल्में बदल रही हैं ,फ़िल्मकार बदल रहे हैं ,दर्शक बदल रहे हैं और दर्शकों का टेस्ट  भी बदल रहा है ,लेकिन ये बदलाव  कुछ चुनिन्दा लोगों पर ही लागू  होता है। गावों और छोटे शहरों के लोग तो आज भी वैसी ही फिल्मों को देखने का ख्वाब संजोये हुए हैं  जहां  सिंगल  स्क्रीन थीएटर में सीटियां बजाते हुए वो फिल्म देखने का आनंद ले सकें और सिनेमाहाल से बहार निकल कर अपनी धुन में खो सकें

गुरुवार, 14 जुलाई 2011

साख बचाने की एक और लचीली कवायद

भ्रष्टाचार, महंगाई,लोकपाल बिल और उसके  बाद तेलंगाना मुद्दा, वर्तमान यूपीए सरकार  के  गले की  फांस बनते जा रहे हैं। शायद इन्हीं सब विवादों का  निपटारा करने के  उद्देश्य से मनमोहन सिंह ने अपनी  कैबिनेट में फेरबदल करने का निर्णय किया । लेकिन  अपनी गिरती हुई साख को  बचाने की कवायद में जुटी कांग्रेस का यह कदम बेहद ही लचीला और निराशाजनक है। इसके पीछे तमाम तर्क दिये जा सकते हैं ।


जिन मुद्दों पर सरकार  की  सबसे ज्यादा किरकिरी  हुई है और जिनके कारण उसे बार-बार लोगों के  विरोध का  सामना करना पड़ा है, उनके  विभागों में कोई फेरबदल नहीं किया जाना इस बात का  पुख्ता सबूत है कि सरकार अपनी गिरती साख को  बचाने की कोई कामयाब कोशिश  नहीं  कर  रही है। चाहे वह महंगाई से संबंधित वित्त मंत्रालय हो ,खाद्य पदार्थों से संबंधित कृषि  मंत्रालय हो या फिर लोकपाल बिल के  धुर विरोधी कपिल सिब्बल का  दूरसंचार मंत्रालय , इनके  साथ कोई बदलाव नहीं किया  गया  है। लेकिन  पर्यावरण संबंधी प्रोजेक्ट्स पर अप्रभावी ही सही किन्तु  समय समय पर रोक  लगाने वाले मंत्री जयराम रमेश के  विभाग को  बदलकर उन्हें ग्रामीण मंत्रालय का  कार्यभार दे दिया गया है। इसके  अलावा भी कई ऐसे मंत्री हैं जिनके  विभागों में अप्रत्याशित रुप से परिवर्तन कर  दिया गया है। विरप्पा मोइली और विलासराव देशमुख के  विभागों को परिवर्तित कर दिया गया है और कुछ  लोगों जैसे सलमान खुर्शीद, पी.के . बंसल और आनंद शर्मा को अतिरिक्त कार्यभार सौंपा गया है।
यहां तक का किया  गया फेरबदल महज एक  खानापूर्ति करता नजर आता है लेकिन  उत्तर प्रदेश से कांग्रेस  सांसद बेनी प्रसाद वर्मा को कैबिनेट में शामिल करने के  पीछे गहरे निहितार्थ हैं। ये कवायद 2012   के  विधानसभा चुनाव के ही मद्देनजर की गई  है। स्पष्ट है कि यूपीए को  जनता से संबंधित मुद्दों से नहीं बल्कि  जनता से मिलने वाले वोटों से ज्यादा लगाव है ।
इसके  अतिरिक्त अपने गठबंधन के सबसे प्रमुख सहयोगी दल डीएमके के  लिए सीटें खाली रखकर कांग्रेस  ने तो अपने गठबंधन का पूरी ईमानदारी से निर्वहन किया  है लेकिन  डीएमके  सरकार के  प्रति कितनी  निष्ठावान है ,इसका  उदाहरण ए.राजा ,दयानिधि मारन और कनिमोझी के कृत्यों से साफ झलकता है। उम्मीद है कि आने वाले डीएमके  कोटे के  मंत्री इतनी ही शिद्दत से अपनी निष्ठा जाहिर करते रहेंगे।

लेकिन  इन सभी बातों के  अलावा कांग्रेस आलाकमान का  ये फैसला कुछ कांग्रेसियों को ही रास नहीं आ रहा है। एक  तरफ जहां विरप्पा मोइली अपना विभाग बदलने को  लेकर नाराजगी जता चुके  हैं (हालांकि  बाद में वो अपने बयान से मुकर भी गए हैं) वहीं दूसरी तरफ मंत्रिमंडल में शामिल गुरुदास कामत ने तो  मंत्रिमंडल से इस्तीफा ही दे दिया है । वो पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय जैसे कम महत्व वाले मंत्रालय का  पदभार मिलने के  कारण असंतुष्ट थे। एक  और मंत्री श्रीकान्त  जेना ,जिन्हें सांख्यिकी और कार्यक्रम  कार्यान्वयन विभाग दिया गया था ,ने भी शपथ ग्रहण समारोह में  शिरकत नहीं की । एम .एस .गिल भी अपना मंत्रालय छिनने के बाद आलाकमान से नाराज बताये जा रहे हैं । हालांकि उनको हटाने के पीछे राष्ट्र मंडल खेल घोटालों में उनके
नाम आने को जिम्मेदार माना जा रहा है।


आलाकमान द्वारा लिए गए ये फैसले जब कांग्रेस के  नेताओं को  ही रास नहीं आ रहे तो  ये फैसले  देश हित में कितने प्रभावशाली होगें, ये तो वक्त बताएगा लेकिन अगर यूपीए ऐसी ही मनमानी करती रही और लोकहित को दरकिनार करके गठबंधन की  दुहाई देकर अपनी सरकार बचाने का यत्न करती रही तो वो दिन दूर नहीं है जब इसी गठबंधन सरकार के  मंत्री कांग्रेस की  ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम करेंगे । 


सत्ता होती ही भोगने के  लिए है लेकिन  भोगने वाली सत्ता का  उदाहरण राजतंत्र में देखने को  मिलता है लोकतंत्र में नहीं। यदि वर्तमान सरकार  यह महसूस करने की  स्थिति में है कि वो एक  लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व कर रही है तब तो उसे जनता की भावना का  खयाल रखना ही होगा अन्यथा जनता तो अब मजबूरी में ही सही लेकिन  ये मानकर चल रही है कि वो एक  निरंकुश राजतंत्र के साये में रहने को  लेकर अभिशप्त है जहां फैसले आम सहमति से लिए नहीं बल्कि  थोपे जाते हैं।





शनिवार, 9 जुलाई 2011

कांग्रेस की रणनीतिक खामी का नतीजा है तेलंगाना

वर्षो तक सत्ता से बेदखल रहने के  बाद जब कांग्रेस  2004 में सत्ता में वापस आई तो उसके  पास कुछ कर  दिखाने के  ढेरों मौके  थे । उसने इन मौकों को  जाया भी नहीं होने दिया और लोक  हित में कुछ अप्रत्याशित फैसले लिए। विपक्ष की तमाम आलोचनओं के बावजूद सूचना के  अधिकार कानून और राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी  योजना को  लागू करने तथा परमाणु संधि पर सहयोगी वामदलों के  समर्थन वापस लेने के  बावजूद  कांग्रेस ने जो फैसले लिए उसका  सकारात्मक  परिणाम उसे 2009 में  लोकसभा चुनावों में देखने को  मिला और कांग्रेस  दुबारा केंद्र  में सत्तारुढ़ हुई। लेकिन  पहली पारी में अपने साहसी फैसलों की  बदौलत सत्ता में वापसी करने के कारण कांग्रेस  ने कुछ मुगालते पाल लिए जिसका नतीजा अब सामने आ रहा है ।

 
भ्रष्टाचार और महंगाई  के मुद्दे पर चारों तरफ से घिरी यूपीए सरकार की  दूसरी पारी अब अपने ही द्वारा बनाए गए चक्रव्यूह में फंसती नजर आ रही है। और इस काम को अंजाम देने वाली कोई  और पार्टी नहीं बल्कि उसके  अपने ही नेता हैं जो तेलंगाना के  मुद्दे पर लगातार अपने शीर्ष नेतृत्व की  खुलेआम अवहेलना कर रहे हैं और तेलंगाना को अलग राज्य बनाने की  मांग को  लेकर इस्तीफा देते जा रहे हैं। फिलहाल तेलंगाना क्षेत्र में आने वाले सभी कांग्रेसी  सांसदों और विधायकों ने इस्तीफे दे दिए हैं। कांग्रेस के  साथ-साथ तेलगूदेशम पार्टी के विधायकों  और सांसदों ने भी इस्तीफा दे दिया है और यदि इन सभी के  इस्तीफे स्वीकार कर लिए जाते हैं तो राज्य में सरकार अल्पमत में आ  जाएगी जिसके  बाद राष्ट्रपति शासन लगना तय है।


आंध्र प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव,लोकसभा चुनाव के  साथ ही हुए थे। केंद्र और राज्य में एक  साथ चुनावी समर में उतरी कांग्रेस  ने अपनी चुनावी रणनीति के तहत तेलंगाना के  मुद्दे पर नरम रुख अख्तियार किया था। इसके  बाद केंद्रीय  गृह मंत्री पी . चिदंबरम ने तेलंगाना राष्ट्र समिति के मुखिया के. चंद्रशेखर राव के  अनशन को  तुडवाने के  लिहाज से अलग तेलंगाना राज्य के  गठन के  लिए सक्रिय  प्रयास करने का एलान किया था। इसके  लिए केंद्र  ने श्रीकृष्ण समिति का  गठन भी कर दिया। इस घोषणा के  दो वर्ष बीत जाने के बाद केंद्र को  ये लगने लगा था कि  उसने तेलंगाना मसले को  करीब -करीब  निबटा दिया है तो तेलंगाना  रुपी  इस जिन्न ने एक बार फिर से अपना सर उठा लिया है। इस जिन्न को  वापस बोतल में बंद करने की कवायद में लगी कांग्रेस  जितना ही इस मुद्दे को सुलझाना चाहती है वो उतनी ही उलझती जा रही है। हालांकि तेलंगाना के समर्थकों का  मानना है कि  तेलंगाना की  स्वायत्तता के लिए कांग्रेस कोई भी कदम  नहीं उठाना चाहती है। कांग्रेसी तौर-तरीको पर एक  नजर डालें तो उनकी  इस बात में एक  हद तक  सच्चाई भी नजर आती है क्योंकि तेलंगाना मसले पर बनाई गई श्रीकृष्ण समिति की रिपोर्ट आ चुकी  है जिसमें उसने इस समस्या से निजात पाने के  लिए छह प्रभावशाली उपायों का भी जिक्र  किया  है। लेकिन सरकार के  पास शायद इस समिति की सिफारिशों को सुनने और उसपर अमल करने का  समय नहीं है। हालांकि  श्रीकृष्ण समिति द्वारा की  गई सिफारिशों से आम जनता भी खुश नहीं है और उसकी  एक मात्र मांग अलग तेलंगाना राज्य की  ही है।
आंध्रप्रदेश से तेलंगाना को अलग करने के  लिए समय -समय पर आंदोलन होते रहे हैं परंतु हालिया आंदोलन अन्य आंदोलनों से अलग है। इस आंदोलन की  सबसे बड़ी खासियत ये है कि  इस आंदोलन में तेलंगाना राष्ट्र समिति के साथ-साथ सत्तारुढ़ कांग्रेस के  विधायको  और सांसदों ने भी इस्तीफे दे दिए हैं जिनमे राज्य के  मंत्री भी शामिल हैं। इसी के  आधार पर केंद्रीय  मंत्री जयराम रमेश पर भी इस्तीफा देने का दबाव बनाया जा रहा है क्योंकि वो भी तेलंगाना से ही सांसद चुने गए हैं। आंदोलनकारियों की  48 घंटे की  राज्यव्यापी बंदी ने राज्य के  सामने परेशानियों का  अंबार खड़ा कर  दिया है। वहीं दूसरी ओर तेलंगाना मसले का  विरोध करने वाला धड़ा भी सरकार पर दबाव बनाने की कवायद में जुटा हुआ है।
 देश में सियासी संकट उत्पन्न करने वाला तेलंगाना का  मुद्दा कोई नया नहीं बल्कि दशकों पुराना है। 10 जिलों के 1 .15  लाख वर्ग कि.मी , में रहने वाली 3 .53 करोड़ जनसंख्या (सन 2011 की जनगणना के  अनुसार आंध्रप्रदेश की  जनसंख्या का  41 .6 फीसदी) यदि अपने हक  और हुकूक की  लड़ाई के  लिए दशकों  से आंदोलनरत है तो इसका  समाधान तो होना ही चाहिए। आखिर कब तक  कोई अपनी उपेक्षा बर्दाश्त कर  पाएगा ? और कहीं ऐसा न हो कि  यह उपेक्षा किसी  दिन सशस्त्र क्रांति का रुप धारण कर ले तो इससे निजात पाने में सरकार को नाकों  चने चबाने पड़ सकते हैं। लेकिन  इन  स्थितियों को  बारीकी से समझने के  बावजूद कांग्रेस  ने अभी तक  कोई  ऐसा कदम नहीं उठाया है जिसे सकारत्मक कहा जा सके ।










शनिवार, 25 जून 2011

कृषि को किसानों से दूर करने की साजिश


भारत आज भी एक कृषि प्रधान देश है जिसकी लगभग 65 प्रतिशत आबादी कृषि कार्यों में संलग्न है. यही आबादी अपनी मेहनत की बदौलत पूरे देश की खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती है . इसके अतिरिक्त  2 .9 करोड़ लोग भोजन और भोजन से संबंधित सामग्री का व्यापार करते हैं. लेकिन हालिया  स्थिति ये है कि इस कृषि उत्पादक और इससे सम्बंधित व्यापारी वर्ग को इन  उत्पादों से दूर करने की साजिश रची जा रही है. 
किसान अपने उत्पाद का स्वयं ही मालिक होता है .उसे अपनी मेहनत की कमाई को निर्धारित करने का पूरा पूरा हक़ बनता है . लेकिन सरकार कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते समय किसानों से उनकी राय लेने में परहेज करती है. वहीँ दूसरी तरफ यही सरकार निजी कंपनियों के हितों का खयाल करते हुए उनके मनमाफिक पेट्रोलियम पदार्थों का दाम बढ़ाने के लिए सदैव तत्पर रहती है . गन्ना किसान अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए जंतर-मंतर  पर इकट्ठा होते हैं तो उनकी बात अनसुनी कर दी जाती है .यही नहीं मीडिया में उनकी नकारात्मक छवि गढ़ने की भरपूर कोशिश की जाती है . जबकि दूसरी तरफ यदि तेल कम्पनियाँ अपने व्यावासिक हितों की अनदेखी  का  रोना रोती हैं तो  यही  सरकार सामाजिक सरोकारों को धता बताते हुए तुरंत ही दाम बढ़ाने का फैसला ले लेती है  और मीडिया घराने भी इस सरकारी फैसले को सही ठहराने के लिए अपना संपादकीय किसी संपादक से नहीं बल्कि किसी तेल कम्पनी के सी . ई .ओ .से लिखवाते हैं .
                         इन सभी बातों के गहरे निहितार्थ हैं.यह  कृषि उत्पादों और कृषि उत्पादन के संसाधनों (जिसमे सबसे महत्वपूर्ण जमीन है ) को औद्योगिक घरानों के सुपुर्द करने की सोची -समझी रणनीति है. इस बात को साबित करने के लिए आवश्यक साक्ष्य भी मौजूद हैं.
बाजार का विश्लेषण करने वाली एक कम्पनी आर.एन.सी.ओ.एस. की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भोजन का बाजार भारत में 7.5 प्रतिशत की दर से हर साल बढ़ रहा है और वर्ष 2013 में यह 330 बिलियन डालर के बराबर होगा. एग्रीकल्चयरल एण्ड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलमेन्ट कार्पोरेशन अथारिटी के मुताबिक वर्ष 2014 में भारत से 22 बिलियन डालर के कृषि उत्पाद निर्यात हो सकते हैं जबकि वर्ष 2009-10 में फूलों, फलों, सब्जियों, पशु उत्पाद, प्रोसेस्ड फूड और बारीक अनाज का निर्यात 7347.07 मिलियन डालर के बराबर हुआ.
       सरकार के द्वारा निर्धारित अनुमानों के अनुसार हरित क्रांति लाने के लिए  कृषि उत्पादन में वृद्धि के साथ साथ खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) अनिवार्य शर्त है. इसके लिए सरकार की डेढ़ लाख करोड़ की रकम खर्च करने की योजना है . जाहिर है कि सामान्य किसान किसी तरह  से उन्नत बीज की व्यवस्था तो कर लेगा लेकिन उसके पास इतने संसाधन नहीं है की वो अपने उत्पादों को प्रासंकारित (फलों और सब्जियों को कई दिनों तक तजा रखने की विधि ) कर सके. किसानों की इस कमजोरी का फायदा उठाने की ताक मेंकई  कम्पनियाँ लगी हुई हैं.वालमार्ट, रिलायंस, भारती, ग्लेक्सो स्मिथ कंज्यूमर हेल्थ केयर, नेस्ले, केविनकरे, फील्ड फ्रेश फूड, डेलमोंटे, बुहलर इंडिया, पेप्सीको और कोका कोला ऐसी ही कम्पनियाँ हैं जो भारत के खाद्य साम्राज्य पर अपना अधिपत्य ज़माने की कोशिश में लगी हुई हैं.
      भारत के खाद्य प्रसंस्करण मंत्री सुबोधकांत सहाय के मुताबिक भारत सरकार कृषि में अगले 5 साल में 21.9 बिलियन डॉलर का निवेश करेगी.  विश्लेषकों  के अनुसार  खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र का हिस्सा 6 प्रतिशत से 20 प्रतिशत होने की पूरी संभावनायें हैं और दुनिया के खाद्यान्न प्रसंस्करण  बाजार में भारत की हिस्सेदारी 1.5 प्रतिशत से बढ़कर 3 प्रतिशत हो जायेगी. जहां तक इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मसला है; यह बढ़कर 264.4 मिलियन डालर का हो गया है. केवल 8 कम्पनियां (केविनकरे, नेस्ले, ग्लेक्सो, यम! रेस्टोरण्ट्स इंडिया, फील फ्रेश फूड, बहलर इण्डिया, पेप्सी और कोकोकोला) ही अगले दो सालों में 1200 मिलियन डालर का निवेश खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली हैं. इन्हें तमाम रियायतों के साथ ही पहले 5 वर्षों तक उनके पूरे फायदे पर 100 फीसदी आयकर में छूट और फिर अगले पांच वर्षों तक 25 फीसदी छूट मिलेगी. एक्साइज ड्यूटी को भी आधा कर दिया गया है  यानी सरकारी नीतियों के तहत औद्योगिक घरानों की सुविधाओं में किसी प्रकार की कोताही नहीं की गई है लेकिन इन सभी बातों के मूल में जो उत्पादक किसान है उसके हितों की रक्षा के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए हैं.
मुक्त अर्थव्यवस्था की पैरोकारी करने के क्रम में पिछले दो दशक के दौरान  भारत के योजना आयोग और आर्थिक सलाहकारों ने मिलकर औद्योगिक विकास की ऐसी संरचना खड़ी कर ली है जिसमे औद्योगिक घरानों  को अपने व्यावासिक हितों को पूरा करने में किसी प्रकार की असुविधा न हो. व्यावासिक घरानों के हितों को पूरा करने के क्रम में ही सरकार ने सन 2005 में कंपनियों को सीधे किसानों से अनाज खरीदने की खुली छूट दे दी . परिणाम यह हुआ कि कंपनियों ने इतनी ज्यादा मात्र में अनाज का भण्डारण कर लिया कि देश में अनाज की कमी हो गई और अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए भारत सरकार को दो गुना दामों पर 53 लाख टन अनाज विदेश से आयात करना पड़ा .
         इसके अलावा  किसानों के लिए इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि पिछले 4 वर्षों में अनाज की खुले बाजार में कीमतें 70 से 120 प्रतिशत तक बढ़ीं हैं  पर सरकार ने किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में महज 20 प्रतिशत की ही बढ़ोत्तरी की है. सबसिडी कम करने की नीति के तहत अब यूरिया और डीएपी पर दी जाने वाली रियायत भी खत्म हो चुकी है, डीजल के दाम निरंतर बढ़ रहे हैं और बिजली की कीमतें पिछले पांच वर्षों में 190 फीसदी बढ़ाई जा चुकी है. इससे गेहूं की उत्पादन की लागत अब लगभग 1650 रूपये पर पहुंच गई है परन्तु भारत सरकार ने इस वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है 1120 रूपये. किसान के लिये दालों का समर्थन मूल्य है 32 रूपये पर बाजार में दालों की कीमत है 60 से 90 रूपये. 
गेहूं से रोटी नहीं बल्कि डबलरोटी, नूडल्स, बिस्किट और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बनाने के लिये उपयोग किया जाना प्राथमिक बना दिया गया है. लगभग 10 लाख हेक्टेयर सबसे उपजाऊ जमीन पर फूल और ऐसे फल उगाये जा रहे हैं; जिनसे रस, शराब और विलासिता के पेय बनते हैं.इन सभी बातों के एक ही निहितार्थ निकलते हैं कि सरकार ही किसानों की आत्महत्या का इकलौता सबसे बड़ा कारण है .और ये परिस्थितियां जान -बूझ कर पैदा की गईं हैं जिससे किसानों को कृषि कार्यों से विमुख करके उनकी जमीनों का सौदा चंद पूंजीपतियों के हाथों किया जा सके.
बावजूद इन सभी बदलावों  के, वर्त्तमान यू.पी. ए.  सरकार की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का नारा नहीं बदल पाया है और वो आज भी बड़े गर्व से कहती है कि
                                               कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ 
 


सोमवार, 23 मई 2011

भारतीयों की गरीबी से चिंतित हैं टाटा

आज कल देश  के सबसे बड़े उद्योगपतियों में शुमार रतन टाटा गरीबों के प्रति खासे चिंतित नजर आ रहे हैं. देश का एक नामी उद्योगपति होने के नाते उनका  देश की गरीब जनता के बारे में  चिंतित होना  लाजमी है. और उसपर भी जनता की गरीबी का दोहन करने वाला कोई और नहीं बल्कि उनके प्रतिद्वंदी उद्योगपति मुकेश अम्बानी हो तो यह चिंता अपने आप ही कई गुना बढ़ जाती है.
मुकेश अम्बानी मुबई में एंटिला नाम का  अपना  27 मंजिला रिहाइशी बंगला बनवा रहे है . टाटा को इस बात की चिंता खाए जा रही है कि जिस देश कि आधी से ज्यादा आबादी को दो जून खाना नसीब नहीं हो रहा है उस देश में 1 आदमी अपनी सुविधा के लिए 27 मंजिला इमारत बना रहा है.  "द टाइम्स" को दिए गए इंटरव्यू में टाटा समूह के प्रमुख रतन टाटा ने कहा था  कि रिलायंस इंडस्ट्रीज़ के प्रमुख मुकेश अंबानी का मुंबई में बना 27 मंज़िला घर 'एंटिला' इस बात का उदाहरण है कि अमीर भारतीयों की ग़रीबों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है.

ये बातें अगर कोई समाजसेवी करता तो ये गले के नीचे उतर जाती लेकिन टाटा कि जुबान से निकला ये बयान लोगों को रास नहीं आ रहा है. इसका कारण भी बिलकुल स्पष्ट है  -टाटा  ही वो कंपनी है जो पश्चिम बंगाल में हुए सिंगुर और नंदीग्राम मामलों के लिए उत्तरदाई है.गरीब किसानों की जमीने हड़प कर उनपर कारखाने लगाने का पूरा यत्न करने करने वाली कंपनी यदि किसी पर गरीबों के प्रति सहानुभूति न रखने का  आरोप लगाये तो ये एक हास्यास्पद बात है. इसके अलावा टाटा ही वो कंपनी है जो एरोप्लेन से लेकर नमक तक बनाने का काम करती है. भोजन की मूलभूत आवश्यकताओं में शुमार नमक  को 12   रूपये प्रति किलो  की दर से बेचने वाली कंपनी गरीबों की हितैषी होने का दावा करे तो सवाल उठने लाजमी हैं.
मुकेश अम्बानी हो या रतन टाटा या फिर बिडला और मित्तल . सारे उद्योगपति एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं.  इन सभी का एक मात्र लक्ष्य अपना मुनाफा कमाना है. देश की आधी आबादी भले ही भूखे पेट सो रही हो , दोनों अम्बानी बन्धु अपने बंगलों को ऊँचा और ऊँचा उठाते जा रहे हैं और इन पर आरोप लगाकर खुद को गरीबों का मसीहा साबित करने की कोशिश में लगे  टाटा  एक के बाद एक  विदेशी कंपनियों का अधिग्रहण करते जा रहे हैं. ऐसी परिस्थितियों में कोई भी आदमी इन पूंजीपतियों से गरीबों का हितैषी होने की कल्पना भी करता है तो इस धरती पर उससे बड़ा मूर्ख शायद ही कोई और दूसरा होगा.

सोमवार, 16 मई 2011

बदलाव की बाट जोहती जनता ने किया तख्तापलट

पश्चिम बंगाल में लगातार 34 सालों से सत्ता पर ·काबिज वामपंथ अब सत्ता से दूर चला गया है।पश्चिम बंगाल की  जनता जो 34 सालों से एक  ही शासन के  तले जी रही थी इसने अपने भाग्य विधाता को आखिरकार बदल ही दिया ।अब सत्ता की  चाभी ममता बनर्जी के  हाथों में हैं जहां से वो अपने मनमाफिक  बंगाल का निर्माण  करने में सक्षम हैं।लेकिन  सबसे बड़ा सवाल यही पैदा होता है कि जिन मुद्दों को  आधार बनाकर ममता ने सत्ता पर कब्ज़ा किया है वो उनको  सुधारने में कितनी सक्षम हो पाती हैं।
तमिलनाडु में सत्ता परिवर्र्तन की सबसे बडी वजह डीएमके  पर भ्रष्टाचार के  आरोपों का होना माना जा रहा है।
लेकिन  ऐसा मानने वालों को  यह कतई  नहीं भूलना चाहए कि इन भ्रष्टाचारों में कांग्रेस की भी उतनी ही  बडी भूमिका   है जितनी की  डीएमके की ।2-जी स्पेक्ट्रम मामले में ए राजा की  गिरफ्तारी हो जाने और कनिमोझी पर चार्जशीट दाखिल हो जाने से डीएमके एक  भ्रष्ट पार्टी हो जाती है तो आदर्श घोटाले में अशोक  चव्वहाण और राष्ट्रमंडल खेल घोटाले में सुरेश कलमाडी की  गिरफ्तारी को  भी अनदेखा नहीं किया  जा सकता है।ये दीगर बात है कि ये राजनेता जिन राज्यों से संबंधित हैं वहां पर चुनाव नहीं हुए है।लेकिन  क्या यदि आज महाराष्ट्र में मध्यावधि चुनाव हों जाए तो वहां से कांग्रेस का  तख्ता पलट हो जाएगा ।यह अपने आप में एक  बड़ा सवाल है।
बंगाल में मां,माटी और मानुस के  नाम पर और नंदीग्राम और सिंगुर मसले पर लोगों लोगों की  भावनाओं के सहारे वोट बैंक तक  पहुंचने  के साथ ही  ममता ने चुनाव तो जीत लिया है लेकिन  बंगाल के लोगों से  किये  गए  वायदे को पूरा करने के  लिए वो कौन सी नीति अपनाएंगी इसका  खुलासा वो अभी तक  नहीं कर पायी हैं।
इसके साथ साथ उनके सामने एक और बड़ी समस्या मुह बाये खड़ी है और वो ये है कि उनके साथ सत्ता के गठबंधन में कांग्रेस पार्टी है जिसके तमाम बड़े नेताओं पर बड़े बड़े भ्रस्टाचार के मामले दर्ज है. साथ ही साथ ममता जिस औद्योगीकरण का विरोध  करके सत्ता पर काबिज हुई हैं उसकी जननी कांग्रेस ही है.
1991 में कांग्रेस के द्वारा अपने गई नवउदारवादी नीतियों का खामियाजा आज पूरा देश भुगत रहा है. अर्थव्यवस्था के विकास के नाम पर सिंगुर और नंदीग्राम जैसी घटनाये कांग्रेसी  नीतियों का ही परिणाम हैं.ऐसे में ममता बनर्जी अपनी सहयोगी पार्टी की नीतियों के उलट कुछ करने में सक्षम हो पाएंगी इसमें संदेह है. कहीं ऐसा तो नहीं कि ममता बनर्जी जिन वादों  और सपनों को जनता को दिखाकर ३४ सालों से काबिज वामपंथ का तख्ता पलट करके सत्ता में आई हैं उस जनता के लिए वो सपने सपने ही रह जाएँ क्योकि  ममता बनर्जी का राजनैतिक कैरियर इतना लम्बा होने के वावजूद भी उनका कोई एक पोलिटिकल स्टैंड नहीं रहा है .और तिस पर तुर्रा यह कि उनके साथ गठबंधन में कांग्रेस है .
बहरहाल उम्मीद ही  की जा सकती है कि बंगाल की जनता के साथ इस बार कोई धोखा न हो और वो भी अपने उन अधिकारों को प्राप्त कर सके जिसके लिए उसने 34 सालों के वाम शासन को ठुकराकर ममता बनर्जी को मौका दिया है.




सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

उदारवादी अर्थव्यवस्था के दो दशक

विकास दर में वृद्धि का राग अलापते हुए सरकार ने 1991 में आर्थिक सुधार के तौर पर उदारवादी अर्थव्यवस्था(मुक्त अर्थव्यवस्था) की शुरुआत की।इस व्यवस्था के बीस वर्ष पूरे हो चुके हैं।बीस वर्षों की इस व्यवस्था से हमें क्या हासिल हुआ है?इस व्यवस्था ने हमारे जीवन स्तर को कितना बेहतर बनाया है?इस व्यवस्था की सफलता सिद्ध करने के लिए विकास के जो आंकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं, कि 1991 में सकल घरेलु उत्पाद की वृद्धि दर जो 2.136 प्रतिशत थी वो इस मुक्त अर्थव्यवस्था के कारण 2010 में 9.5 प्रतिशत है, उनका मौजूदा हकीकत से कितना वास्ता है?
भारत सरकार अपने साल भर के आर्थिक कार्यक्रमों, योजनाओं और आर्थिक गतिविधियों का एक लेखा-जोखा आर्थिक सर्वेक्षण के रुप में प्रस्तुत करती है।इस सर्वेक्षण के माध्यम से सरकार अपने आंकड़ों की संख्या में इजाफा करके देश में विकास की स्थिति प्रकट करती है।मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करने वाले अर्थशास्त्री इन आंकड़ों को वास्तविकता के करीब पाते हैं वहीं इस व्यवस्था के विरोधी अर्थशास्त्रियों के लिए ये आंकड़े महज कागजी और दिखावा हैं।
समग्र विकास की अवधारणा के साथ शुरु की गई उदारवादी अर्थव्यवस्था की नीतियों ने आंकड़ों में तो भारत को विश्व की सबसे तेजी से विकसीत हो रही अर्थव्यवस्था का दर्जा दे दिया है लेकिन वास्तविकता के धरातल पर स्थिति कुछ और ही बयान करती है।भारत ही एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें खाद्दान का भंडारण तो बढ़ता जा रहा है लेकिन प्रतिव्यक्ति खाद्दान उपलब्धता घटती जा रही है।
पिछले बीस वर्षों में (आर्थिक उदारवाद के दौर में) खाद्दान की उपलब्धता 510 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से घटकर आज महज 436 ग्राम तक पहुंच गई है।ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले एक दशक में अनाज का उपभोग 2.14 फीसदी घटा है और कैलोरी उपभोग भी 1.53 फीसदी कम हुआ है।ये आंकड़े सरकार के उन तमाम दावों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त हैं जिनमें सरकार दावे करती है कि लोग अनाज की जगह हाई प्रोटीन डाइट जैसे चिकन व अंडा खाने लगे हैं।यदि ऐसा ही होता तो केवल अनाज के उपभोग में ही कमी होती ,कैलोरी उपभोग में नहीं।
विकास दर में वृद्धि की चकाचौंध में सरकार का किसानों की आत्महत्याओं की ओर ध्यान न देना एक सामान्य सी बात हो गई है।भारत की विकास दर में तो इजाफा हो रहा है लेकिन साथ ही किसानों की आत्महत्या की दर में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।सन् 1997 से 2009 तक 2,16,500 किसानों ने गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर ली।सन् 2008 में जहां 16,196 किसान आत्महत्याएं हुईं वहीं सन् 2009 में यह संख्या बढ़कर 17,368 हो गई। इसमें से 10,765 मौतें महज पांच राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में हुईं।
विकास का यह स्वरुप यहीं तक सीमित नहीं है।देश के जाने माने पत्रकार पी. साईंनाथ विकास की इस विरोधाभासी अवधारणा को एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हैं।उन्होनें अपने आंकलन में पाया है कि महाराष्ट्र के पिछड़े मराठवाड़ा क्षेत्र के औरंगाबाद जिले के धनाढ्य व्यापारियों ने 65 करोड़ रुपये खर्च करके 160 मर्सिडीज बेंज लग्जरी कारों का आर्डर दिया।स्टेट बैंक के उच्च अधिकारी ने उन्हें ऋण देते हुए कहा कि बैंक को गर्व है कि वह इस सौदे का हिस्सा बना।इन कारों का मूल्य लगभग उतनी है जितना 10,000 किसानों के पैदावार की कुल कीमत।किसानों को ट्रैक्टर के लिए ऋण नहीं मिलता है या अगर मिलता भी है तो 12 फीसदी की ब्याज दर पर,जबकि मर्सिडीज के लिए ब्याज दर है महज सात फीसदी।
दो दशकों में कागजी आंकड़ों में पर्याप्त वृद्धि दर्ज कर लेना ही विकास का पैमाना नहीं बन सकता।विकास की जो दर किसानों की आत्महत्याओं में भी वृद्धि कर रही है उस विकास का क्या औचित्य है।ऐसे ही सवालों के जवाब खोजता भारतीय किसान आज भी अपने लिए विकास के पैमाने निर्धारित करने के लिए सरकार की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है।हमारी सरकार है कि बस.............।   

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देता मिस्र का जन आंदोलन

ट्यूनिशिया से उठे विद्रोह के स्वर ने अरब के अधिकांश देशों को अपनी चपेट में ले लिया है।इस विद्रोह का सबसे सकारात्मक प्रभाव ट्यूनिशिया और मिस्र पर पड़ा है।ट्यूनिशिया के शासक बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा है और मिस्र के तानाशाह शासक होस्नी मुबारक ने अगला चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है।
परन्तु इन विद्रोहों का जिस देश पर सबसे नकारात्मक प्रभाव पड़ा है वो है अमेरीका।वह अमेरीका जो स्वयं को वैश्विक लोकतंत्र का पुरोधा मानता है,लोकतंत्र के नाम पर अपने सरपरस्त देशों को सालाना अरबों डालर की राशि देता है और लोकतंत्र के खतरे में होने का हवाला देकर कई देशों पर अक्सर हमले कर देता है।
बेन अली और होस्नी मुबारक जैसे तानाशाहों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ यह जन आंदोलन अमेरिकी वर्चस्व के मुंह पर एक तमाचे जैसा है।अमेरिकी सरपरस्ती में इन देशों पर शासन कर रहे शासकों के खिलाफ जनता का यह विद्रोह अप्रत्यक्ष रुप से अमेरीका के खिलाफ भी बगावत का संदेश देता है।अरब देशों में अपने मातहतों की मदद से शासन कर रहे अमेरीका के खिलाफ लोगों के गुस्से ने अमेरिकी संप्रभुता को कमजोर करने का काम किया है।
इन आंदोलनों से अमेरीका का भयभीत होना लाजमी भी है।कारण कि आज से लगभग तीन दशक पहले सन् 1979 में अमेरिकी प्रभुत्व के तले शासन को मजबूर ईरान में भी ऐसी ही एक चिंगारी उठी थी।इस चिंगारी ने आग का रुप धारण कर लिया और ईरान की सत्ता अमेरिकी हाथों से फिसलकर वहां की जनता के पास आ गई।आज वही ईरान मिस्र के इस आंदोलन को पुरजोर समर्थन दे रहा है।
वर्तमान हालातों में मिस्र की जनता अपने लिए एक नए शासक का चुनाव करने के लिए व्याकुल है।सत्ता परिवर्तन के बाद उसे भी ईरान जैसी स्वतंत्रता की आशा है।बावजूद इसके अमेरीका अपने सरपरस्त इंटरनेशनल एटामिक एनर्जी एजेंसी(आई.ए.ई.ए) के पूर्व प्रमुख मोहम्मद अलबरदेई को मिस्र की कमान सौंपने के लिए प्रयासरत है।अब मिस्र में यह देखना खासा दिलचस्प होगा कि होस्नी मुबारक के तख्ता को पलटने के बाद वहां की जनता अपना कोई नया शासक चुन पाती है या नहीं।अलबरदेई के हाथों में तो सत्ता आने के बाद फिर से मिस्र पर अप्रत्यक्ष रुप से अमेरीका का ही शासन हो जाएगा और मिस्र की जनता जहां की तहां खड़ी नजर आएगी।
उम्मीद है कि मिस्र के हालात बदलेंगे और सत्ता किसी योग्य व्यक्ति के हाथों में आएगी।आखिर उस देश को भी दुनिया के अन्य देशों की तरह लोकतंत्र कायम करने,बेहतर जीवन-शैली बनाने और अमन-चैन कायम करने का अधिकार प्राप्त है।

सोमवार, 24 जनवरी 2011

यह आम रास्ता नहीं है

कांग्रेस का हाथ,आम आदमी के साथ।कांग्रेसी सरकार भले ही ये तमाम दावे आम आदमी के हित में करे लेकिन उन दावों का क्रियान्वयन खास आदमी के लिए ही करती है।भारत की राजधानी दिल्ली में जहां कांग्रेस पिछले 10 वर्षों से अनवरत शासन कर रही है वहां भी उसका ध्यान आम आदमी की तरफ नहीं बल्कि खास आदमी की ही तरफ है।
कांग्रेस की इसी नीति का अनुसरण दिल्ली परिवहन निगम भी कर रहा है।दक्षिणी दिल्ली जिसे दिल्ली का दिल कहा जाता है,उसके भी कुछ इलाकों के साथ दिल्ली परिवहन निगम सौतेला व्यवहार कर रहा है।एक तरफ तो दक्षिणी दिल्ली के साउथ एक्सटेंशन जैसे इलाकों के लिए दिल्ली परिवहन निगम दिल खोलकर मेहरबान है वहीं दूसरी ओर वसंतकुंज,किशनगढ़ और छतरपुर जैसे इलाकों के लिए उसके पास बसें हीं नहीं हैं।वसंतकुंज जाने वाली केवल एक बस 605 को छोड़ दिया जाए तो इस रुट पर और कोई दूसरी बस नहीं है।
                                                   
गौरतलब है कि वसंतकुंज और छतरपुर जैसे इलाके तो अमीरों की आरामगाह है लेकिन किशनगढ़ इन सबसे उपेक्षित आम आदमी के रहने की जगह है।इस इलाके की अधिकांश आबादी छात्रों की है।जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय,आई.आई.टी और भारतीय जनसंचार संस्थान से नजदीक होने के कारण बाहरी राज्यों से आए छात्र इस इलाके में रहना पसंद करते हैं।ऐसे में छात्रों को किशनगढ़ से इन संस्थानों में आना होता है तो उनके लिए आटो के अलावा परिवहन का कोई विकल्प नहीं होता है।आटो वाले भी छात्रों का और साथ ही उस इलाके में रहने वाले लोगों का जमकर आर्थिक शोषण करते हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में सबसे बड़े दोषी दिल्ली परिवहन निगम के उच्च अधिकारी हैं।बार-बार अनुरोध करने और शिकायत करने के बावजूद भी उनके कानों पर जूं नहीं रेंग रही है।अब तो बस यही कहा जा रहा है कि यह आम रास्ता नहीं है।यह रास्ता उन चंद लोगों के लिए ही बनाया गया है जिनके पास अथाह पैसा और अकूत संसाधन हैं।   

बुधवार, 19 जनवरी 2011

युवाओं का स्वप्न

कभी कहीं पर सुना था कि सपना वो नहीं है जो रात को सोते समय आये बल्कि सपना तो वो है जो आपके रात की नींद उड़ा दे।कमोबेश यही स्थिति आज के युवाओं की हो गई है।भारत जो युवाओं का देश है और जहां युवाओं की आबादी लगभग 65 प्रतिशत है,उनकी आंखों में एक अलग तरह का सपना तैरता रहता है।वो सिर्फ अपने वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित करने के सपने देखते हैं और उन्हीं सपनों को साकार करने के लिए उसके ईर्द - गिर्द प्रयास करते हैं।
भारत को स्वतंत्रता दिलाने में सबसे महती भूमिका युवाओं की रही है और आज भारत जब विश्व की महाशक्तियों के समक्ष स्वयं को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है तो उसका भी सबसे बड़ा आधार युवा वर्ग ही है।लेकिन आज के युवा अपनी आंखों में देश के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए हसीन सपने संजोते नजर आ रहे हैं।ऐसे में मदन कश्यप की एक लाईन याद आती है—
    पहले सोचता था कि खूबसूरत दुनिया में हो मेरा घर,
    अब सोचता हूं कि दुनिया में हो मेरा खूबसूरत घर।
आज के युवाओं के विवेक पर उपभोक्तावाद का प्रभाव बढता जा रहा है। वो बाजारवादी विस्तार का अधिकाधिक समावेश स्वयं के लिए कर लेना चाहते हैं। वो अपने सपनों को पूरा करने के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहता है। सपनों की सफलता के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार लोगों को ही देखकर शायद कवि शमशेर ने लिखा था—
हम अपने खयाल को सनम समझते थे,
अपने को खयाल से भी कम समझते थे,
होना था-समझना कुछ भी न था शमशेर,
होना भी कहां था वह जो हम समझते थे।
ऐसी स्थिति में युवा जब अपने खयाल को ही सनम समझ बैठे हों तो सनम को तो पाने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। आज यही हो भी रहा है। युवाओं में बढ़ती अपराध की प्रवृत्ति उनके इन्हीं सपनों की उपज है। मेट्रो शहरों और माल कल्चर की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए यह युवा वर्ग किसी भी तरह की परिस्थिति से दो-चार होने के लिए तैयार रहता है। आए दिन हो रहे अपराधों में युवाओं की संल्पितता का बढ़ता ग्राफ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
बाजारवाद के प्रभाव ने युवाओं की मानसिकता को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है।युवा जो शक्ति और क्रांति का परिचायक माना जाता है ,आज वो स्वयं की महत्वाकांक्षाओं की  पूर्ति के लिए प्रयास कर रहा है।युवाओं की इस बदलती मानसिकता का स्तर समाज पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा है। समाज में आ रही नित नई-नई विकृतियाँ इन्हीं बदलती मानसिकताओं का परिणाम है।
लेकिन  ऐसा हो क्यों हो रहा है इसका जवाब देना अत्यंत मुश्किल तो नहीं लेकिन इतना आसान भी नहीं है।शायद इसका एक जवाब आवश्यकता और लालच या दूसरे शब्दों में कहें तो आवश्यकता और महत्वाकांक्षा के बीच स्पष्ट अंतर न कर पाना भी हो सकता है। आज का युवा अपनी आवश्यकताओं को कुछ इस कदर फैलाता जा रहा है कि उन आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही उसकी महत्वाकांक्षा बन गई है और जब तक यह महत्वाकांक्षा इस रूप में हावी रहेगी, युवाओं का भविष्य अंधकारमय ही होगा। वो स्वयं के लिए तो एक हसीन दुनिया का सृजन कर लेगा लेकिन उसे ऐसा करने के लिए दुनिया के हसीन घरों को उजाड़ना भी पड़ेगा। अब तय तो हम युवाओं को ही करना है कि हमें इस खूबसूरत दुनिया को खूबसूरत बनाए रखते हुए स्वयं के लिए खूबसूरत घर की तलाश करनी है अथवा किसी भी कीमत पर स्वयं के लिए एक खूबसूरत घर बनाना ही है। 

सोमवार, 17 जनवरी 2011

भारतीय अर्थव्यवस्था पर खामोश चिंतन

अप्रवासी भारतीय सम्मेलन में भारतीय अर्थव्यवस्था की गौरवपूर्ण उपलब्धि का वर्णन करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री अत्यधिक उल्लसीत थे।विदेशी निवेश को आकर्षित करने के उद्देश्य से उन्होनें वर्ष की आखिरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 8.90 प्रतिशत रहने का दावा किया और अगले साल के अंत तक इसके 8.5 9 प्रतिशत के बीच रहने की बात कही।
लेकिन इन सब बातों का उल्लेख करते हुए हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री इस बात को भूल गये कि हमारे देश की 27.5 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे है और 79 प्रतिशत से अधिक आबादी 20 रुपये से भी कम की आमदनी पर गुजारा कर रही है।और यही कारण है कि अंतराष्ट्रीय भूख सूचकांक में 84 में से 67 वां स्थान प्रदान किया है।बांग्लादेश,यमन और तिमोर-लेस्टे जैसी मामूली अर्थव्यवस्था वाले देश भी खाद्दान्न असुरक्षा के मामले में भारत से बेहतर स्थिति में है।
हमारे देश के प्रधानमंत्री देश के सकल घरेलू उत्पाद में निरंतर वृद्घि का उल्लेख करते हैं।
परंतु ये इस बात को दरकिनार कर देते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के साथ ही साथ बेरोजगारी की दर और मुद्रास्फीति की दर में भी वृद्धि हुई है। सन् 2009 के अंत में भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 6.50 प्रतिशत थी जो सन् 2010 के अंत में बढ़कर 8.90 प्रतिशत हो गई लेकिन इसके साथ ही साथ सन् 2009 में बेरोजगारी दर 6.80 प्रतिशत थी जो सन् 2010 में बढ़कर 10.70 प्रतिशत हो गई। सन् 2010 के अंत में मुद्रास्फीति की दर 8.33 प्रतिशत थी। खाद्दान्न के मामले में तो मुद्रास्फीति की दर दहाई अंक को पार करके 16.91 प्रतिशत तक पहुंच गई है।
वर्तमान में देश के औद्दोगिक विकास की दर भी पिछले डेढ़ साल के न्यूनतम स्तर पर है। विनिर्माण क्षेत्र में निराशाजनक प्रदर्शन के कारण नवंबर 2010 में यह मात्र 2.7 फीसदी दर्ज की गई जबकि अक्टूबर 2010 में इसकी वृद्धि दर 11 फीसदी थी और इसके पिछले वर्ष नवंबर 2009 में यह 11.3 फीसदी रही थी।
इन सब बातों को भूलने के साथ-साथ प्रधानमंत्री यह भी भूलते जा रहे हैं कि भारत की उत्पादन की वृद्धि दर भी कम होती जा रही है। इसका उल्लेख करते हुए वरिष्ठ पत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता ने हिन्दुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में लिखा है कि आज भारत में जितनी रकम उत्पादन में लगी है उसका 5 गुना निवेश सट्टा बाजार में है और उसकी 10 गुनी पूंजी डेरिवेटिव्स में लगी हुई है। अर्थात 16 आने में से 15 आना रकम जुए में खर्च की जा रही है और 1 आना रकम के सहारे उत्पादन क्षमता को बढाने पर बल दिया जा रहा है। यह पूंजीवाद का और भी विकृत रुप जुआरी पूंजीवाद है।
ऐसी स्थिति में जब उत्पादन की बजाए जुए में ज्यादा पूंजी लगी हो तो जुए से प्राप्त मुनाफे का आम आदमी के जीवन में कितना उपयोग है। यदि सेंसेक्स 20,000 के आंकड़े को पार कर जा रहा है तो भी आम आदमी उसके लाभ से अछूता ही रह जा रहा है। उसके लिए सेंसेक्स के बढ़ने की बजाए मुद्रास्फीति की दर में कमी ज्यादा लाभदायक होगी। सेंसेक्स 20,000 के पार होने के साथ-साथ यदि मुद्रास्फीति की दर और विशेष कर खाद्दान्न मुद्रास्फीति की दर में कमी नहीं होगी तो ऐसा विकास बेमानी ही है।
भारतीय लोकतंत्र ने सभी को समानता के अवसर दिए हैं। इस अवसर की उप्लब्धि इसी में है कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। मनरेगा जैसी योजनाओं ने गरीबों में आशा की एक किरण तो जगाई है लेकिन इसके साथ ही साथ महंगाई भी इतनी तेजी से बढ़ी है कि वो अपने लिए दो जून का खाना भी ठीक ढंग से नहीं जुटा पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर पर इतराने की अपेक्षा बेरोजगारी की वृद्धि दर और खाद्य सुरक्षा एवं मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के प्रयास किए जांए तो यह आम आदमी के हितों के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र के हित में भी होगा।  


शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

वेन जियाबाओ की भारत यात्रा

चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भारत की दो दिवसीय यात्रा पर आये। किसी अन्य देश के राष्ट्राध्यक्ष की तरह  ही उनका देश में भव्य स्वागत किया गया। इनके सम्मान में कोई कोर-कसर बाकी ना रही। परन्तु वेन जियाबाओ की इस दो दिवसीय यात्रा ने भारतीयों को पूरी तरह से निराश ही किया।
       हमारे देश का चीन से संबंध किसी अन्य पड़ोसी देश की तरह ही नहीं है। चीन हमारा पड़ोसी होने के साथ-साथ हमारा प्रतिद्वन्दी भी है। यह हमारा वही पड़ोसी देश है जिसने सन् 1962 में हमारे देश पर आक्रमण करके हमारी सीमाओं पर कब्जा कर लिया था। यह वही देश है जो साम्राज्यवाद की समाप्ति के बावजूद भी तिब्बत को अपने साम्राज्यवादी विस्तार का एक हिस्सा मानता है। यह वही देश है जो भारत के अभिन्न अंग अरुणाचल प्रदेश पर समय-समय पर अपनी दावेदारी प्रस्तुत करता रहता है और यह वही पड़ोसी देश है जो भारत के कश्मीर राज्य के निवासियों के लिए अलग से स्टेपल वीजा की अवधारणा कायम करता है।
      चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के संदर्भ में भारत की ओर से ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जो बातचीत के दौरान उठने लाजिमी थे। भारत की ओर से ये प्रश्न उठाए भी गए परन्तु चीनी प्रधानमंत्री बहुत ही सफाई के साथ इन मुद्दों को टाल गए। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थायी सदस्यता के मसले पर भी वेन जियाबाओ की सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं रही। पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर चर्चा करने पर भी चीनी प्रधानमंत्री ने दोनों देशों के साथ तटस्थ रहने की बात कही।
        आखिर किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष किसी दूसरे देश को कितना मुगालते में रख सकता है। क्या जियाबाओ यह नहीं जानते कि भारत आतंकवाद से पीड़ित देश है और पाकिस्तान आतंकवाद  का प्रायोजित देश। फिर दोनों देशों के साथ एक ही जैसा व्यवहार कैसे किया जा सकता है। किसी देश के विभिन्न राज्यों के लिए अलग-अलग वीजा का प्रावधान कहां तक जायज और तर्कसंगत है। ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिनके समाधान के अभाव में द्विपक्षीय संबंधों के मजबूत होने में और भी अधिक वक्त लगने की संभावना है और इस वक्त का दायरा जितना लंबा होता जाएगा भारत की मुश्किलें और भी अधिक बढ़ती जाएंगी।
        बहरहाल वेन जियाबाओ ने भारत के साथ इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात करना भले ही जरुरी ना समझा हो , व्यापारिक मसलों पर बात करने से वे नहीं चूके। भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए उन्होनें व्यापार बढ़ाने पर जोर दिया । साथ ही साथ ग्रीन टेक्नालाजी , दोनों देशों के बीच बहने वाली नदियों के हाइड्रोलाजिकल डाटा , मीडिया और सांस्कृतिक आदान प्रदान और बैंकिंग क्षेत्र में परस्पर सहभागिता के मुद्दों पर दोनों देशों के बीच समझौता हुआ।
        लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा दोनों देशों के बीच के सामरिक रिश्ते को सुधारना है। सामरिक मुद्दों का समाधान होते ही दोनों देशों के आपसी संबंध स्वत: ही ठीक हो जाएंगे। लेकिन चीन जबतक भारत को पड़ोसी देश मानने की बजाय सामरिक प्रतिद्वन्दी और अपने उत्पाद बेचकर मुनाफा कमाने वाला बाजार मात्र मानता रहेगा , ये समस्याएं कभी भी खत्म नहीं होंगी।