गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देता मिस्र का जन आंदोलन

ट्यूनिशिया से उठे विद्रोह के स्वर ने अरब के अधिकांश देशों को अपनी चपेट में ले लिया है।इस विद्रोह का सबसे सकारात्मक प्रभाव ट्यूनिशिया और मिस्र पर पड़ा है।ट्यूनिशिया के शासक बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा है और मिस्र के तानाशाह शासक होस्नी मुबारक ने अगला चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है।
परन्तु इन विद्रोहों का जिस देश पर सबसे नकारात्मक प्रभाव पड़ा है वो है अमेरीका।वह अमेरीका जो स्वयं को वैश्विक लोकतंत्र का पुरोधा मानता है,लोकतंत्र के नाम पर अपने सरपरस्त देशों को सालाना अरबों डालर की राशि देता है और लोकतंत्र के खतरे में होने का हवाला देकर कई देशों पर अक्सर हमले कर देता है।
बेन अली और होस्नी मुबारक जैसे तानाशाहों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ यह जन आंदोलन अमेरिकी वर्चस्व के मुंह पर एक तमाचे जैसा है।अमेरिकी सरपरस्ती में इन देशों पर शासन कर रहे शासकों के खिलाफ जनता का यह विद्रोह अप्रत्यक्ष रुप से अमेरीका के खिलाफ भी बगावत का संदेश देता है।अरब देशों में अपने मातहतों की मदद से शासन कर रहे अमेरीका के खिलाफ लोगों के गुस्से ने अमेरिकी संप्रभुता को कमजोर करने का काम किया है।
इन आंदोलनों से अमेरीका का भयभीत होना लाजमी भी है।कारण कि आज से लगभग तीन दशक पहले सन् 1979 में अमेरिकी प्रभुत्व के तले शासन को मजबूर ईरान में भी ऐसी ही एक चिंगारी उठी थी।इस चिंगारी ने आग का रुप धारण कर लिया और ईरान की सत्ता अमेरिकी हाथों से फिसलकर वहां की जनता के पास आ गई।आज वही ईरान मिस्र के इस आंदोलन को पुरजोर समर्थन दे रहा है।
वर्तमान हालातों में मिस्र की जनता अपने लिए एक नए शासक का चुनाव करने के लिए व्याकुल है।सत्ता परिवर्तन के बाद उसे भी ईरान जैसी स्वतंत्रता की आशा है।बावजूद इसके अमेरीका अपने सरपरस्त इंटरनेशनल एटामिक एनर्जी एजेंसी(आई.ए.ई.ए) के पूर्व प्रमुख मोहम्मद अलबरदेई को मिस्र की कमान सौंपने के लिए प्रयासरत है।अब मिस्र में यह देखना खासा दिलचस्प होगा कि होस्नी मुबारक के तख्ता को पलटने के बाद वहां की जनता अपना कोई नया शासक चुन पाती है या नहीं।अलबरदेई के हाथों में तो सत्ता आने के बाद फिर से मिस्र पर अप्रत्यक्ष रुप से अमेरीका का ही शासन हो जाएगा और मिस्र की जनता जहां की तहां खड़ी नजर आएगी।
उम्मीद है कि मिस्र के हालात बदलेंगे और सत्ता किसी योग्य व्यक्ति के हाथों में आएगी।आखिर उस देश को भी दुनिया के अन्य देशों की तरह लोकतंत्र कायम करने,बेहतर जीवन-शैली बनाने और अमन-चैन कायम करने का अधिकार प्राप्त है।

1 टिप्पणी:

  1. बंधु कहीं यह अमेरीकी वर्चस्व के अंत की शुरुआत तो नहीं?/
    एक बात और जिस इरान की दुहाई आप दे रहें हैं वहां भी मात्र कहने सुनने भर को लोकतंत्र है। वहां की बंदिशे किसी तानाशाही देश से कम नहीं है। वहां भी जो भी सरकार के खिलाफ बोलता है उसकी बोलती सदा के लिये बंद कर दी जाती है.... तो इरान के मशहूर फिल्मकार जफर पनाही को इरान के निरंकुश इस्लामी शासन ने 6 साल की कैद और 20 साल तक फिल्में बनाने या निर्देशित करने, स्क्रिप्ट लिखने, विदेश यात्रा करने और मीडिया में इंटरव्यू देने पर प्रतिबन्ध लगा दिया है। उनपर आरोप है कि वे शासन के खिलाफ प्रचार अभियान चला रहे थे। पनाही इससे पहले जुलाई, 2009 में गिरफ्तार किए गए थे, जब वह राष्ट्रपति पद के लिए हुए विवादास्पद चुनाव में मारे गए आन्दोलनकारियों के शोक में शामिल हुए थे। छूटने के बाद उनपर विदेश जाने पर प्रतिबन्ध तभी से लगा हुआ है। फरवरी, 2010 में वह फिर अपने परिवार और सहकर्मियों के साथ गिरफ्तार किए गए। वे इरान में लगातार विपक्ष की आवाज़ बने हुए । इस तरह विपक्ष विहीन ईरान किसी लोकतांत्रिक देश का उदाहरण नहीं हो सकता है। और यही डर मिडिल ईस्ट के अन्य देशों के लिये भी है कि कहीं वहां परिवर्तन के बाद कट्टर पंथियों का शासन स्थापित न हो जाये .. जो हर तरह के तानाशाही से विभीत्स होगा।

    आशीष

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