बुधवार, 19 जनवरी 2011

युवाओं का स्वप्न

कभी कहीं पर सुना था कि सपना वो नहीं है जो रात को सोते समय आये बल्कि सपना तो वो है जो आपके रात की नींद उड़ा दे।कमोबेश यही स्थिति आज के युवाओं की हो गई है।भारत जो युवाओं का देश है और जहां युवाओं की आबादी लगभग 65 प्रतिशत है,उनकी आंखों में एक अलग तरह का सपना तैरता रहता है।वो सिर्फ अपने वर्तमान और भविष्य को सुरक्षित करने के सपने देखते हैं और उन्हीं सपनों को साकार करने के लिए उसके ईर्द - गिर्द प्रयास करते हैं।
भारत को स्वतंत्रता दिलाने में सबसे महती भूमिका युवाओं की रही है और आज भारत जब विश्व की महाशक्तियों के समक्ष स्वयं को स्थापित करने की कोशिश कर रहा है तो उसका भी सबसे बड़ा आधार युवा वर्ग ही है।लेकिन आज के युवा अपनी आंखों में देश के लिए नहीं बल्कि स्वयं के लिए हसीन सपने संजोते नजर आ रहे हैं।ऐसे में मदन कश्यप की एक लाईन याद आती है—
    पहले सोचता था कि खूबसूरत दुनिया में हो मेरा घर,
    अब सोचता हूं कि दुनिया में हो मेरा खूबसूरत घर।
आज के युवाओं के विवेक पर उपभोक्तावाद का प्रभाव बढता जा रहा है। वो बाजारवादी विस्तार का अधिकाधिक समावेश स्वयं के लिए कर लेना चाहते हैं। वो अपने सपनों को पूरा करने के लिए कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहता है। सपनों की सफलता के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार लोगों को ही देखकर शायद कवि शमशेर ने लिखा था—
हम अपने खयाल को सनम समझते थे,
अपने को खयाल से भी कम समझते थे,
होना था-समझना कुछ भी न था शमशेर,
होना भी कहां था वह जो हम समझते थे।
ऐसी स्थिति में युवा जब अपने खयाल को ही सनम समझ बैठे हों तो सनम को तो पाने के लिए किसी भी हद तक जाया जा सकता है। आज यही हो भी रहा है। युवाओं में बढ़ती अपराध की प्रवृत्ति उनके इन्हीं सपनों की उपज है। मेट्रो शहरों और माल कल्चर की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिए यह युवा वर्ग किसी भी तरह की परिस्थिति से दो-चार होने के लिए तैयार रहता है। आए दिन हो रहे अपराधों में युवाओं की संल्पितता का बढ़ता ग्राफ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
बाजारवाद के प्रभाव ने युवाओं की मानसिकता को पूरी तरह से बदल कर रख दिया है।युवा जो शक्ति और क्रांति का परिचायक माना जाता है ,आज वो स्वयं की महत्वाकांक्षाओं की  पूर्ति के लिए प्रयास कर रहा है।युवाओं की इस बदलती मानसिकता का स्तर समाज पर भी स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा है। समाज में आ रही नित नई-नई विकृतियाँ इन्हीं बदलती मानसिकताओं का परिणाम है।
लेकिन  ऐसा हो क्यों हो रहा है इसका जवाब देना अत्यंत मुश्किल तो नहीं लेकिन इतना आसान भी नहीं है।शायद इसका एक जवाब आवश्यकता और लालच या दूसरे शब्दों में कहें तो आवश्यकता और महत्वाकांक्षा के बीच स्पष्ट अंतर न कर पाना भी हो सकता है। आज का युवा अपनी आवश्यकताओं को कुछ इस कदर फैलाता जा रहा है कि उन आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही उसकी महत्वाकांक्षा बन गई है और जब तक यह महत्वाकांक्षा इस रूप में हावी रहेगी, युवाओं का भविष्य अंधकारमय ही होगा। वो स्वयं के लिए तो एक हसीन दुनिया का सृजन कर लेगा लेकिन उसे ऐसा करने के लिए दुनिया के हसीन घरों को उजाड़ना भी पड़ेगा। अब तय तो हम युवाओं को ही करना है कि हमें इस खूबसूरत दुनिया को खूबसूरत बनाए रखते हुए स्वयं के लिए खूबसूरत घर की तलाश करनी है अथवा किसी भी कीमत पर स्वयं के लिए एक खूबसूरत घर बनाना ही है। 

1 टिप्पणी:

  1. मैं आपकी बात से असहमत हूं।
    वह मनुष्य मृतक समान है जो बिना किसी महत्वाकांक्षा के जीता जा रहा हो...
    जहां तक बात महत्वाकांक्षाओे की प्रकृति की है तो उसका निर्धारण देश काल परिस्थितियां और समाज द्वारा ही होता है।
    युवाओं के सपनो में भटकाव क्यों है, वह आत्मकेंद्रित क्यों होता जा रहा हैं,वह देश के लिये न सोच कर अपने लिये क्यों सोच रहें है , कभी इस पर भी विचार करिये। क्या गलत है, विचार इस पर नहीं होना चाहिये बल्कि वह गलत क्यों है .. विचार का केंद्र होना चाहिये।
    जिस समयकाल में आज का युवा पैदा हुआ है उसने जन्म से ही भ्रष्टाचार,फरेब,विश्वासधात,भाई भतीजावाद,आरक्षण और धोखाधड़ी से ही लोगों को आगे बढते देखा है। चारों तरफ गरीबी और बेबसी का माहौल है । देश की सरकार और प्रशासन पंगु है । युवाओं को न तो कोई प्रेरणा का स्रोत दिख रहा है न ही सही माहौल। तो आखिर क्यों न वह स्वार्थी बने ..
    हो सकता है उसके स्वयं के विकास से ही देश कल्याण की कोई धारा फूट निकले..

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