बुधवार, 18 अगस्त 2010

सरोकारों से दूर होता मीडिया

निर्माता आमिर खान , किरण राव और लेखिका एवं निर्देशिका अनुष्का रिजवी द्वारा निर्देशित फिल्म पीपली लाइव मीडिया के उस सच को बयान करती है जिसकी कल्पना करना भी बेमानी लगता है . आज जब समाज के  विभिन्न अंगों  में मीडिया का दखल  बढ़ता जा रहा है वह अपनी भूमिका का निर्वहन किस गैर जिम्मेदाराना तरीके से कर रहा है  उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है  पीपली लाइव.
                                         यद्यपि पीपली लाइव कर्ज के बोझ तले  दबे किसानों  की कहानी है जो अपना कर्ज चुकाने के लिए अपनी ज़मीन बेचने पर विवश  हैं.इन्हीं  किसानों में एक है नत्था जो अपनी आत्महत्या  के बाद सरकार से मुआवजे के रूप में मिलने वाली रकम से अपनी जमीन बचाने की बात करता है. इस खबर को सुनकर एक कथित खोजी पत्रकार इससे एक ब्रेकिंग  न्यूज़ बना देता है जिसके बाद पूरा मीडिया पीपली गाँव में मेला लगा देता है. अपनी  ब्रेकिंग  न्यूज़ बनाने के दौरान मीडियाकर्मिओ  के अनाप  शनाप  सवालों से नत्था और उसका पूरा परिवार त्रस्त हो जाता है.नत्था मरेगा या नहीं मीडिया के लिए यही सबसे ज्वल्लंत मुद्दा है जबकि उसी गाँव का एक किसान जिसकी ज़मीन कर्ज के दवाब में बिक चुकी है अपनी  रोजी रोटी के इंतजामात के दौरान गड्ढे में गिरकर मर जाता है. मीडिया के लिए यह उतनी बड़ी खबर नहीं है जितना कि नत्था.
                                 फिल्म में एक पत्रकार राकेश जो मीडिया के सरोकारों को पुनः परिभाषित करने कि बात कहता है उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि जिस प्रकार एक डॉक्टर और इंजीनियर  अपना काम करते हैं  उसी प्रकार हमें भी अपना काम करना चाहिए और हमारा काम है खबर बनाना न कि सत्य को प्रदर्शित करना.और यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो और भी रास्ते है तुम्हारे पास. और अंततः  ब्रेकिंग  न्यूज़ बनाने के दौरान उस पत्रकार की मौत हो जाती है जिसको नत्था के रूप में मरा जानकर मीडिया अपने  कर्तव्यों  की इतिश्री कर लेता है.
          इस पूरे प्रकरण में जितना दोष हमारे राजनेताओं का है उससे कहीं  ज्यादा दोष मीडिया का है जो घटना की तह में जाने की बजाये इस बात में ज्यादा दिलचस्पी रखता है कि नत्था मरेगा या नहीं. नत्था बचेगा या नहीं इस सवाल को पूछने  की जहमत किसी  पत्रकार ने नहीं उठाई.
        क्या इस घटनाक्रम में मीडियाकर्मिओं  की ज़िम्मेदारी नहीं बनती की नत्था को आत्महत्या करने से रोके  और सरकार पर इस संमस्या का समाधान करने के लिए दवाब डाले . आखिर टी.आर. पी. बढ़ने के अलावा और भी तो जिम्मेदारियां  है मीडिया पर.

रविवार, 15 अगस्त 2010

स्वतंत्रता कि ६३वीं सालगिरह के मायने

आज स्वतंत्रता कि ६३वीं सालगिरह का जश्न  बहुत ही धूमधाम से मनाया जा रहा है।विगत संध्या पर राष्ट्रपति और थोड़ी ही देर पहले प्रधानमंत्री राष्ट्र कि जनता को संबोधित कर चुके है।उल्लास और उत्साह के इस माहौल में क्या किसी ने यह सोचने की जहमत उठाई कि देश की ७०% जनता जो आज भी गाँव में रहती है और जिसका मुख्य पेशा कृषि है उसके लिए आज की इस स्वंत्रता दिवस के क्या मायने हैं।वो लोग जो खेतों में काम करते हैं वो राष्ट्र की उपलब्धिओं पर गौरवान्वित होने की बजाय अपने खेतों में काम कर रहे होंगे जिससे की शाम की रोजी-रोटी का प्रबंध हो सके।
        आज जब प्रधानमंत्री देशवासिओं से राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को सफल बनाने के लिए सहयोग की अपील कर रहे हैं वही दूसरी ओर धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर हिंसा  की आग में दहक रहा है। क्या कोरा आश्वासन ही कश्मीर में अमन-चैन कायम कर सकता है।
           जब प्रधानमंत्री अपने आर्थिक सुधारों और देश कि बढ़ रही आर्थिक सम्पन्नता का गुणगान कर रहे है वही दूसरी ओर नक्सलवाद से प्रभावित इलाको में नक्सली अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को सुदृढ करने के लिए आम लोगों की जाने ले रहे हैं और अपनी जाने  दे रहे है।
       एक तरफ जहा राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर पानी कि तरह पैसा बहाया जा रहा है वही दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ों में रहने वाले गरीबों और भिखारिओं को दिल्ली की सीमा के बाहर खदेड़ा जा रहा है. आखिर इस राष्ट्रमंडल के आयोजन के क्या मायने हैं जिसमें आम आदमी के हितों कि अनदेखी की जा रही हो।
      स्वतंत्रता दिवस के इस अवसर पर केवल झूठी बयानबाजी की बजाय यदि देशहित में कोइ गंभीर कदम उढाया जाए तो ज्यादा बेहतर होगा।आज के राजनेताओं के इस बयानबाजी पर जहीर कुरैशी का  एक शेऱ है
                                              बयानबाजी मुखर युद्ध है सियासत में,
                                              बदलती रहती है बयान कि सीमा यहाँ।

            

शनिवार, 14 अगस्त 2010

इब्तिदा

आखिरकार मैं  भी ब्लॉगरों की जमात में शामिल हो ही गया.और ऐसा हो भी क्यों न? भूमंडलीकरण के इस युग में जब दुनिया और भी अधिक छोटी होती जा रही है और लोग और भी अधिक संवेदनहीन तथा स्वार्थपरक,लोगो तक अपने विचारो की अभिव्यक्ति का इससे बेहतर माध्यम और हो भी क्या सकता है.
                                                              कोशिश यही रहेगी कि इस माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बातों को निष्ठापूर्वक  रख सकूँ