शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

वेन जियाबाओ की भारत यात्रा

चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भारत की दो दिवसीय यात्रा पर आये। किसी अन्य देश के राष्ट्राध्यक्ष की तरह  ही उनका देश में भव्य स्वागत किया गया। इनके सम्मान में कोई कोर-कसर बाकी ना रही। परन्तु वेन जियाबाओ की इस दो दिवसीय यात्रा ने भारतीयों को पूरी तरह से निराश ही किया।
       हमारे देश का चीन से संबंध किसी अन्य पड़ोसी देश की तरह ही नहीं है। चीन हमारा पड़ोसी होने के साथ-साथ हमारा प्रतिद्वन्दी भी है। यह हमारा वही पड़ोसी देश है जिसने सन् 1962 में हमारे देश पर आक्रमण करके हमारी सीमाओं पर कब्जा कर लिया था। यह वही देश है जो साम्राज्यवाद की समाप्ति के बावजूद भी तिब्बत को अपने साम्राज्यवादी विस्तार का एक हिस्सा मानता है। यह वही देश है जो भारत के अभिन्न अंग अरुणाचल प्रदेश पर समय-समय पर अपनी दावेदारी प्रस्तुत करता रहता है और यह वही पड़ोसी देश है जो भारत के कश्मीर राज्य के निवासियों के लिए अलग से स्टेपल वीजा की अवधारणा कायम करता है।
      चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के संदर्भ में भारत की ओर से ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जो बातचीत के दौरान उठने लाजिमी थे। भारत की ओर से ये प्रश्न उठाए भी गए परन्तु चीनी प्रधानमंत्री बहुत ही सफाई के साथ इन मुद्दों को टाल गए। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थायी सदस्यता के मसले पर भी वेन जियाबाओ की सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं रही। पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर चर्चा करने पर भी चीनी प्रधानमंत्री ने दोनों देशों के साथ तटस्थ रहने की बात कही।
        आखिर किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष किसी दूसरे देश को कितना मुगालते में रख सकता है। क्या जियाबाओ यह नहीं जानते कि भारत आतंकवाद से पीड़ित देश है और पाकिस्तान आतंकवाद  का प्रायोजित देश। फिर दोनों देशों के साथ एक ही जैसा व्यवहार कैसे किया जा सकता है। किसी देश के विभिन्न राज्यों के लिए अलग-अलग वीजा का प्रावधान कहां तक जायज और तर्कसंगत है। ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिनके समाधान के अभाव में द्विपक्षीय संबंधों के मजबूत होने में और भी अधिक वक्त लगने की संभावना है और इस वक्त का दायरा जितना लंबा होता जाएगा भारत की मुश्किलें और भी अधिक बढ़ती जाएंगी।
        बहरहाल वेन जियाबाओ ने भारत के साथ इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात करना भले ही जरुरी ना समझा हो , व्यापारिक मसलों पर बात करने से वे नहीं चूके। भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए उन्होनें व्यापार बढ़ाने पर जोर दिया । साथ ही साथ ग्रीन टेक्नालाजी , दोनों देशों के बीच बहने वाली नदियों के हाइड्रोलाजिकल डाटा , मीडिया और सांस्कृतिक आदान प्रदान और बैंकिंग क्षेत्र में परस्पर सहभागिता के मुद्दों पर दोनों देशों के बीच समझौता हुआ।
        लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा दोनों देशों के बीच के सामरिक रिश्ते को सुधारना है। सामरिक मुद्दों का समाधान होते ही दोनों देशों के आपसी संबंध स्वत: ही ठीक हो जाएंगे। लेकिन चीन जबतक भारत को पड़ोसी देश मानने की बजाय सामरिक प्रतिद्वन्दी और अपने उत्पाद बेचकर मुनाफा कमाने वाला बाजार मात्र मानता रहेगा , ये समस्याएं कभी भी खत्म नहीं होंगी।   




रविवार, 12 दिसंबर 2010

लोकतंत्र का राजकुमार

यह कुछ अजीब था
अब आप तय कीजिए
कि क्या अजीब था
लोकतंत्र अजीब था
या राजकुमार अजीब थे
या इन दोनों के साथ-साथ होने की
परिस्थितियां अजीब थी

जो भी हो
लेकिन वह था
अब वह था तो था
यही कि लोकतंत्र था
और राजकुमार भी थे
वे झोपड़ियों में जाते थे
और झोपड़ियां उपकृत हो जाती थीं
यह कहना तो मुश्किल था
कि आगे वे कभी जलाई नहीं जाएंगी
मगर कुछ दिनों के लिए जलने से  बच ही जाती थीं

उस एक दिन अच्छा खाना बनता था
जाने कहां से एक चारपाई आ जाती थी
राजकुमार के सोने के लिए
ख़बर बनती थी
राजकुमार बांस की खटिया पर सोए
जैसे सारा देश पलंग पर सोता हो

वे दाल-रोटी खाते थे और
गरीबों को दाल-रोटी मुहाल हो जाती थी
कारों की खरीदारी बढ़ जाती थी
दालों की खरीदारी घट जाती थी

पहले यह सब खेल जैसा लगता था
विरोधी दलों और प्रतिपक्षी बुद्धिजीवियों को ही नहीं
उनकी सरकार को भी
लेकिन धीरे-धीरे सबको लगने लगा
यह खेल है
मगर खेल जैसा कोई खेल नहीं
यह तो लोकतंत्र का खेल है
जिसे बादशाहत पाने के लिए खेलना जरुरी है
भावनाओं से खेलना
सपनों से खेलना
हथियारों से खेलने से ज्यादा खतरनाक होता है

राजकुमार को सब पता था
कहां कौन सा खेल खेलना जरुरी है
अब यह अचानक तो हुआ नहीं था
कि वे लोकतंत्र के राजकुमार थे
नागरिकों के जनता और फिर
निरीह मतदाताओं मे बदल जाने
समाज के वापस समुदाय में तब्दील हो जाने
की त्रासद प्रक्रियाओं को वे जानते-बूझते थे
आखिर उनके पिता भी तो राजकुमार थे

वे जनतंत्र के पेच-ओ-खम को समझ रहे थे
एक झटके में राज हथियाने पर
दूसरे झटके से उसे खोना भी पड़ता है
इसीलिए धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे थे

वे पक्ष भी थे और प्रतिपक्ष भी
हमारे समय के आईने में  उन्हें पहचानना
हमारी भाषा के मुहावरों में उन्हें प्रकट करना
असंभव नहीं तो कठिन जरुर था

जनता अब भी उनकी सबसे बड़ी मुश्किल थी
मगर सरकार भी कम मुश्किल नहीं थी
गृहमंत्री बनैला सूअर था
जिसे भ्रम था कि वह वराहावतार है
और पृथ्वी उसके दो नुकीले दांतों पर टिकी है
वित्तमंत्री जंगली हाथी था
जिसे बुढ़ापे में कच्ची शराब की लत लग लई थी
और वह महुए की तलाश में
जंगल के वाशिंदो के घर तोड़ डालता था
डर के मारे लोगबाग पेड़ों पर रहने लगे थे

और प्रधानमंत्री

वह तो एक मेटाफर था
उस लोकतंत्र में किसी भी मतदाता ने
किसी भी पद के लिए
उसे कभी भी नहीं चुना था
फिर भी वह प्रधानमंत्री था
इसीलिए वह जनता की नहीं
उन लोगों की चिंता करता था
जिनकी बदौलत वह था

लोकतंत्र इतना भर तो था ही
कि इस बात पर गहरे मतभेद थे
वह किसकी बदौलत प्रधानमंत्री था
और बहस जारी थी

अब ऐसे में राजकुमार का
सियार या लकड़बघ्घे की जगह
आदमी बने रहना कितना कठिन था

किसान गोलियां खा रहे थे
कुछ बंदूकों की
कुछ जहर की
आदिवासी भूख से बिलबिलाने
या बूट के नीचे दबकर छटपटाने की
लोकतांत्रिक नियति से बाहर आने की कोशिश कर रहे थे

एक कवयित्री जुल्मी कानून के खिलाफ
बरसों से अनशन पर बैठी थी
दिल्ली में लोग उसका नाम तक भूलने लगे थे
क्योंकि उसके पीछे कोई एनजीओ नहीं था
जो उसकी याद दिलाने के लिए
राजधानी में मणिपुरी नाच कराता

उत्तर-आधुनिक बुद्धिजीवी
अपने-अपने थूथन पर नए-नए विचार चिपकाए
इधर-उधर घूम रहे थे
कि अब कहीं कोई संघर्ष नहीं है
समाज उनके एनजीओ से ही बदलेगा
वे बाजार विरोधी विचारों से
अपना बाजार बना रहे थे
जैसे राजकुमार सरकार विरोधी विचारों से
अपना जनाधार बढ़ा रहे थे

वे चुनाव में वोट की उगाही से पहले
बार-बार तगादे पर निकलते थे
एक दिन अलीगढ़ के किसानों के बीच चले गए थे
जिन पर कुछ ही दिन पहले गोलियां बरसाई गई थीं
वहां ' नोएडा ' के कुख्यात बिल्डर को
धरने पर बैठा देख खुश हुए थे
और आदिवासियों के आंसू पोछने के लिए
नियमगिरि की ओर चल पड़े थे

उन्हें पता तो रहा ही होगा
कि उसी सूबे में उदयगिरि और खंडगिरि ही नहीं
एक धवलगिरि भी है
जहां एक सम्राट सेना के साथ गया था
और उसने क्रूरता का वह इतिहास रचा था
जिससे इतिहास बदल गया था

वैसे भी उनके भूगोल ज्ञान पर संदेह होता था
और इतिहास की तो खैर उन्हें कोई समझ ही नहीं थी
वे तो यह भी भूल चुके थे
विवाद का ताला किसने खोला था
पहली रथयात्रा किसने निकाली थी

वे जनगण की स्मृति और आकांक्षा
दोनों से खेलना जानते थे
इसीलिए उनका कद उनकी सरकार से उंचा था

हम जिस समय में थे
उसकी रत्ती-रत्ती पर उनका कब्जा था
पर वे तो उस समय को देख रहे थे
जिस समय में हम होना चाहते थे

हम सब कैदी थे
पर उतने भर से उन्हें संतोष नहीं था
वे तो हमारे सपनों को कैद करना चाहते थे
हमने पूरी दिल्ली उन्हें दे दी थी
मगर उनकी नजर तो दंतेवाड़ा पर थी             
                                           हंस के दिसंबर 2010 के अंक में प्रकाशित मदन कश्यप  की   एक कविता
                                            जो वर्तमान भारतीय राजनीति पर कुठाराघात करती है।