सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

उदारवादी अर्थव्यवस्था के दो दशक

विकास दर में वृद्धि का राग अलापते हुए सरकार ने 1991 में आर्थिक सुधार के तौर पर उदारवादी अर्थव्यवस्था(मुक्त अर्थव्यवस्था) की शुरुआत की।इस व्यवस्था के बीस वर्ष पूरे हो चुके हैं।बीस वर्षों की इस व्यवस्था से हमें क्या हासिल हुआ है?इस व्यवस्था ने हमारे जीवन स्तर को कितना बेहतर बनाया है?इस व्यवस्था की सफलता सिद्ध करने के लिए विकास के जो आंकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं, कि 1991 में सकल घरेलु उत्पाद की वृद्धि दर जो 2.136 प्रतिशत थी वो इस मुक्त अर्थव्यवस्था के कारण 2010 में 9.5 प्रतिशत है, उनका मौजूदा हकीकत से कितना वास्ता है?
भारत सरकार अपने साल भर के आर्थिक कार्यक्रमों, योजनाओं और आर्थिक गतिविधियों का एक लेखा-जोखा आर्थिक सर्वेक्षण के रुप में प्रस्तुत करती है।इस सर्वेक्षण के माध्यम से सरकार अपने आंकड़ों की संख्या में इजाफा करके देश में विकास की स्थिति प्रकट करती है।मुक्त अर्थव्यवस्था का समर्थन करने वाले अर्थशास्त्री इन आंकड़ों को वास्तविकता के करीब पाते हैं वहीं इस व्यवस्था के विरोधी अर्थशास्त्रियों के लिए ये आंकड़े महज कागजी और दिखावा हैं।
समग्र विकास की अवधारणा के साथ शुरु की गई उदारवादी अर्थव्यवस्था की नीतियों ने आंकड़ों में तो भारत को विश्व की सबसे तेजी से विकसीत हो रही अर्थव्यवस्था का दर्जा दे दिया है लेकिन वास्तविकता के धरातल पर स्थिति कुछ और ही बयान करती है।भारत ही एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जिसमें खाद्दान का भंडारण तो बढ़ता जा रहा है लेकिन प्रतिव्यक्ति खाद्दान उपलब्धता घटती जा रही है।
पिछले बीस वर्षों में (आर्थिक उदारवाद के दौर में) खाद्दान की उपलब्धता 510 ग्राम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन से घटकर आज महज 436 ग्राम तक पहुंच गई है।ग्रामीण क्षेत्रों में पिछले एक दशक में अनाज का उपभोग 2.14 फीसदी घटा है और कैलोरी उपभोग भी 1.53 फीसदी कम हुआ है।ये आंकड़े सरकार के उन तमाम दावों की पोल खोलने के लिए पर्याप्त हैं जिनमें सरकार दावे करती है कि लोग अनाज की जगह हाई प्रोटीन डाइट जैसे चिकन व अंडा खाने लगे हैं।यदि ऐसा ही होता तो केवल अनाज के उपभोग में ही कमी होती ,कैलोरी उपभोग में नहीं।
विकास दर में वृद्धि की चकाचौंध में सरकार का किसानों की आत्महत्याओं की ओर ध्यान न देना एक सामान्य सी बात हो गई है।भारत की विकास दर में तो इजाफा हो रहा है लेकिन साथ ही किसानों की आत्महत्या की दर में भी अप्रत्याशित वृद्धि हुई है।सन् 1997 से 2009 तक 2,16,500 किसानों ने गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर ली।सन् 2008 में जहां 16,196 किसान आत्महत्याएं हुईं वहीं सन् 2009 में यह संख्या बढ़कर 17,368 हो गई। इसमें से 10,765 मौतें महज पांच राज्यों महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में हुईं।
विकास का यह स्वरुप यहीं तक सीमित नहीं है।देश के जाने माने पत्रकार पी. साईंनाथ विकास की इस विरोधाभासी अवधारणा को एक उदाहरण के माध्यम से स्पष्ट करते हैं।उन्होनें अपने आंकलन में पाया है कि महाराष्ट्र के पिछड़े मराठवाड़ा क्षेत्र के औरंगाबाद जिले के धनाढ्य व्यापारियों ने 65 करोड़ रुपये खर्च करके 160 मर्सिडीज बेंज लग्जरी कारों का आर्डर दिया।स्टेट बैंक के उच्च अधिकारी ने उन्हें ऋण देते हुए कहा कि बैंक को गर्व है कि वह इस सौदे का हिस्सा बना।इन कारों का मूल्य लगभग उतनी है जितना 10,000 किसानों के पैदावार की कुल कीमत।किसानों को ट्रैक्टर के लिए ऋण नहीं मिलता है या अगर मिलता भी है तो 12 फीसदी की ब्याज दर पर,जबकि मर्सिडीज के लिए ब्याज दर है महज सात फीसदी।
दो दशकों में कागजी आंकड़ों में पर्याप्त वृद्धि दर्ज कर लेना ही विकास का पैमाना नहीं बन सकता।विकास की जो दर किसानों की आत्महत्याओं में भी वृद्धि कर रही है उस विकास का क्या औचित्य है।ऐसे ही सवालों के जवाब खोजता भारतीय किसान आज भी अपने लिए विकास के पैमाने निर्धारित करने के लिए सरकार की ओर आशा भरी निगाहों से देख रहा है।हमारी सरकार है कि बस.............।   

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2011

अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती देता मिस्र का जन आंदोलन

ट्यूनिशिया से उठे विद्रोह के स्वर ने अरब के अधिकांश देशों को अपनी चपेट में ले लिया है।इस विद्रोह का सबसे सकारात्मक प्रभाव ट्यूनिशिया और मिस्र पर पड़ा है।ट्यूनिशिया के शासक बेन अली को देश छोड़कर भागना पड़ा है और मिस्र के तानाशाह शासक होस्नी मुबारक ने अगला चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है।
परन्तु इन विद्रोहों का जिस देश पर सबसे नकारात्मक प्रभाव पड़ा है वो है अमेरीका।वह अमेरीका जो स्वयं को वैश्विक लोकतंत्र का पुरोधा मानता है,लोकतंत्र के नाम पर अपने सरपरस्त देशों को सालाना अरबों डालर की राशि देता है और लोकतंत्र के खतरे में होने का हवाला देकर कई देशों पर अक्सर हमले कर देता है।
बेन अली और होस्नी मुबारक जैसे तानाशाहों के खिलाफ उठ खड़ा हुआ यह जन आंदोलन अमेरिकी वर्चस्व के मुंह पर एक तमाचे जैसा है।अमेरिकी सरपरस्ती में इन देशों पर शासन कर रहे शासकों के खिलाफ जनता का यह विद्रोह अप्रत्यक्ष रुप से अमेरीका के खिलाफ भी बगावत का संदेश देता है।अरब देशों में अपने मातहतों की मदद से शासन कर रहे अमेरीका के खिलाफ लोगों के गुस्से ने अमेरिकी संप्रभुता को कमजोर करने का काम किया है।
इन आंदोलनों से अमेरीका का भयभीत होना लाजमी भी है।कारण कि आज से लगभग तीन दशक पहले सन् 1979 में अमेरिकी प्रभुत्व के तले शासन को मजबूर ईरान में भी ऐसी ही एक चिंगारी उठी थी।इस चिंगारी ने आग का रुप धारण कर लिया और ईरान की सत्ता अमेरिकी हाथों से फिसलकर वहां की जनता के पास आ गई।आज वही ईरान मिस्र के इस आंदोलन को पुरजोर समर्थन दे रहा है।
वर्तमान हालातों में मिस्र की जनता अपने लिए एक नए शासक का चुनाव करने के लिए व्याकुल है।सत्ता परिवर्तन के बाद उसे भी ईरान जैसी स्वतंत्रता की आशा है।बावजूद इसके अमेरीका अपने सरपरस्त इंटरनेशनल एटामिक एनर्जी एजेंसी(आई.ए.ई.ए) के पूर्व प्रमुख मोहम्मद अलबरदेई को मिस्र की कमान सौंपने के लिए प्रयासरत है।अब मिस्र में यह देखना खासा दिलचस्प होगा कि होस्नी मुबारक के तख्ता को पलटने के बाद वहां की जनता अपना कोई नया शासक चुन पाती है या नहीं।अलबरदेई के हाथों में तो सत्ता आने के बाद फिर से मिस्र पर अप्रत्यक्ष रुप से अमेरीका का ही शासन हो जाएगा और मिस्र की जनता जहां की तहां खड़ी नजर आएगी।
उम्मीद है कि मिस्र के हालात बदलेंगे और सत्ता किसी योग्य व्यक्ति के हाथों में आएगी।आखिर उस देश को भी दुनिया के अन्य देशों की तरह लोकतंत्र कायम करने,बेहतर जीवन-शैली बनाने और अमन-चैन कायम करने का अधिकार प्राप्त है।