शनिवार, 23 जुलाई 2011

आज की फिल्मों का दर्शक वर्ग

 भारतीय फिल्मों का इतिहास लगभग ९० साल पुराना है। इन ९० सालों में भारतीय सिनेमा ने बहुतेरे उतार- चढाव देखे । अपनी प्रयोगधर्मिता के लिए जाने  जाने वाले  भारतीय सिनेमा ने समय और दर्शकों के हिसाब से फिल्मों में नए नए प्रयोग किये ।  इन प्रयोगों को आवश्यकतानुसार दर्शकों ने सराहा भी और समय आने पर इन प्रयोगों की आलोचना करने में भी पीछे नहीं रहे  । प्रयोगधर्मिता का ये दौर भारतीय फिल्मों के पितामह दादा साहब  फाल्के के ज़माने में भी था और आज के फिल्म जगत के  मिस्टर परफेकसनिस्ट  आमिर खान के ज़माने में भी ये परंपरा बदस्तूर  कायम है लेकिन इन सभी प्रयोगों ने एक और  बदलाव किया है । ये बदलावहै दर्शकों के वर्गीकरण का । 
 इस बदलाव ने दर्शकों को भी दो भागों में वर्गीकृत कर दिया है लेकिन ये वर्गीकरण उनकी सोच और समझ के आधार पर नहीं बल्कि उनकी आर्थिक हैसियत के आधार पर किया गया है। उदारीकरण से पहले जब किसी ने मल्टीप्लेक्स का नाम भी नहीं सुना था तब फिल्म बनाने का उदेश्य सामाजिक सरोकारों के साथ साथ दर्शकों का मनोरंजन करना और समाज में आ रहे बदलावों को बड़े परदे के माध्यम से लोगों तक पहुंचाना था। उनके इस उदेश्य के पीछे एक नजरिया होता था, एक सोच होती थी  लेकिन आज फिल्मों को बनाने के पीछे का मकसद ही बदल गया है। आज फिल्म जगत में भी दो  अलग -अलग वर्ग हैं जो अपना अपना दर्शक वर्ग तलाश कर उनके लिए सिनेमा बनाते हैं । सबसे बड़ा वर्ग उन फिल्मकारों का  हैं  जिन्होंने प्रयोगधर्मिता का चोला ओढ़ रखा है । इस चोले के  साये तले वो ऐसी फिल्मे बना रहे हैं जिनका दर्शक वर्ग मल्टीप्लेक्स में बर्गर और पापकार्न खा रहा एलिट क्लास होता है। ये फ़िल्मकार उन्ही के लिए सिनेमा बनाते हैं और उनके पैसे से अपनी फिल्मों की लागत वसूल कर उसे हिट करार  दे देते हैं। इन फिल्मों का  दर्शक वर्ग कितना बड़ा है इसकी उन्हें कोई चिंता नहीं है बल्कि उन्हें तो अपनी लागत  का दोगुना - तीनगुना मिल जाये बस इसी की दरकार है। आज की फिल्म आम भारतीय का मनोरंजन करे या ना करे , वो मल्टीप्लेक्स में बैठे लोगों के टेस्ट के अनुरूप है तो सब ठीक नहीं तो ऐसी फ़िल्में मार्केट से आउट। हालिया उदहारण डेल्ही बेल्ही है जिसे देखने मल्टीप्लेक्स में तो लोगों की भीड़ जुटी लेकिन सिंगल `स्क्रीन के दर्शकों (छोटे शहरों  और कस्बों के दर्शकों ) ने नकार दिया । बावजूद इसके फिल्म ने मल्टीप्लेक्स की बदौलत कमाई की और सुपरहिट के खाते में दर्ज हो गई । 25 करोड़ की लागत से बनी इस फिल्म ने पहले ही सप्ताहांत में 36 करोड़ की कमाई कर ली थी । इस कमाई का पूरा लेखा-जोखा देखें तो तस्वीर खुद-ब-खुद सामने आ जाती है.
मुंबई और दिल्ली  जहां मल्टीप्लेक्स की भरमार है वहां इस फिल्म ने सप्ताहांत में क्रमशः 8.24 करोड़ रुपये और4.64  करोड़ का कारोबार किया लेकिन सिंगल स्क्रीन थियेटर वाले राज्यों पश्चिम बंगाल और बिहार में इसकी कमाई  क्रमशः 99 लाख और 20 लाख रही । मतलब साफ है कि  जहां इस फिल्म को मल्टीप्लेक्स थियेटर में 70-80 फीसदी दर्शक मिले वही सिंगल स्क्रीन थियेटर में इसे महज ३०-४० फीसदी दर्शक मिले
यह फिल्म  एक उदाहरण  मात्र है । आज कल ऐसी फिल्मों की बॉलीवुड में बाढ़ सी आ गई है। ये साली ज़िन्दगी, 7 खून माफ़, ज़िन्दगी ना मिलेगी दुबारा और शैतान इसी श्रेणी में रखी जाने लायक फ़िल्में हैं। दूसरी तरफ वांटेड ,दबंग,गोलमाल , रेडी और सिंघम जैसी फिल्मों की सिंगल स्क्रीन थियेटर से लेकर मल्टीप्लेक्स थियेटर के बीच लोकप्रियता की कहानी से कोई भी अनजान नहीं है। लोकप्रियता के मामले में देल्ली बेल्ली रेडी के आस -पास भी नहीं फटकती है लेकिन इसका आर्थिक पहलू कुछ दूसरी तस्वीर ही बयान करता है। रेडी जैसी फिल्म  जिसकी लागत 50 करोड़ रुपये है, अपने सप्ताहांत में 41 करोड़ की कमाई करती है ।  ये आकडे तस्वीर की हकीकत बयान करने के लिए काफी हैं कि मात्र 25करोड़ की लागत से एक सप्ताह में 36 करोड़ कमाया जा रहा है और 50 करोड़ लगाने पर एक सप्ताह में मिल रहा है मात्र 41 करोड़ । फिर क्यों ना 25 करोड़ वाली फिल्मों की बाढ़ आए

एक औसत सिंगल स्क्रीन थियेटर में फिल्म देखने के लिए दर्शकों को लगभग 50 रुपये चुकाने पड़ते हैं। .इसके अलावा उसे उस थियेटर में खाने के लिए मुश्किल  से बिस्किट या चिप्स मिलता है जिसकी कीमत 5-10 रुपये होती है । वही दूसरी तरफ मल्टीप्लेक्स थियेटर की औसत टिकट की कीमत लगभग 200 रुपये होती है और खाने को मिलता है पिज्जा ,बर्गर और पापकार्न जिसकी लागत लगभग 100-150 रुपये होती है। इसका सीधा -सीधा मतलब ये है कि मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने वाले की हैसियत ,सिंगल स्क्रीन थियेटर में फिल्म देखने वाले की लगभग 4 गुनी है । इसे दूसरे शब्दों में कहे तो सिंगल स्क्रीन थियेटर की फिल्मों की तुलना में मल्टीप्लेक्स में लगने वाली फिल्मों की सफलता लगभग 4 गुनी हो जाती है। ऐसे हालात में जब फिल्मकारों के ऊपर विशुद्ध मुनाफाखोरी हावी हो जाये तो जाहिर सी बात है कि वो मल्टीप्लेक्स के लिए ही फिल्म बनायेंगे । आखिर सफलता (मुनाफा ) जो चार गुनी है
फ़िल्में बदल रही हैं ,फ़िल्मकार बदल रहे हैं ,दर्शक बदल रहे हैं और दर्शकों का टेस्ट  भी बदल रहा है ,लेकिन ये बदलाव  कुछ चुनिन्दा लोगों पर ही लागू  होता है। गावों और छोटे शहरों के लोग तो आज भी वैसी ही फिल्मों को देखने का ख्वाब संजोये हुए हैं  जहां  सिंगल  स्क्रीन थीएटर में सीटियां बजाते हुए वो फिल्म देखने का आनंद ले सकें और सिनेमाहाल से बहार निकल कर अपनी धुन में खो सकें

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