शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

वेन जियाबाओ की भारत यात्रा

चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ भारत की दो दिवसीय यात्रा पर आये। किसी अन्य देश के राष्ट्राध्यक्ष की तरह  ही उनका देश में भव्य स्वागत किया गया। इनके सम्मान में कोई कोर-कसर बाकी ना रही। परन्तु वेन जियाबाओ की इस दो दिवसीय यात्रा ने भारतीयों को पूरी तरह से निराश ही किया।
       हमारे देश का चीन से संबंध किसी अन्य पड़ोसी देश की तरह ही नहीं है। चीन हमारा पड़ोसी होने के साथ-साथ हमारा प्रतिद्वन्दी भी है। यह हमारा वही पड़ोसी देश है जिसने सन् 1962 में हमारे देश पर आक्रमण करके हमारी सीमाओं पर कब्जा कर लिया था। यह वही देश है जो साम्राज्यवाद की समाप्ति के बावजूद भी तिब्बत को अपने साम्राज्यवादी विस्तार का एक हिस्सा मानता है। यह वही देश है जो भारत के अभिन्न अंग अरुणाचल प्रदेश पर समय-समय पर अपनी दावेदारी प्रस्तुत करता रहता है और यह वही पड़ोसी देश है जो भारत के कश्मीर राज्य के निवासियों के लिए अलग से स्टेपल वीजा की अवधारणा कायम करता है।
      चीनी प्रधानमंत्री की भारत यात्रा के संदर्भ में भारत की ओर से ये कुछ ऐसे प्रश्न थे जो बातचीत के दौरान उठने लाजिमी थे। भारत की ओर से ये प्रश्न उठाए भी गए परन्तु चीनी प्रधानमंत्री बहुत ही सफाई के साथ इन मुद्दों को टाल गए। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थायी सदस्यता के मसले पर भी वेन जियाबाओ की सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं रही। पाकिस्तान के साथ भारत के संबंधों पर चर्चा करने पर भी चीनी प्रधानमंत्री ने दोनों देशों के साथ तटस्थ रहने की बात कही।
        आखिर किसी देश का राष्ट्राध्यक्ष किसी दूसरे देश को कितना मुगालते में रख सकता है। क्या जियाबाओ यह नहीं जानते कि भारत आतंकवाद से पीड़ित देश है और पाकिस्तान आतंकवाद  का प्रायोजित देश। फिर दोनों देशों के साथ एक ही जैसा व्यवहार कैसे किया जा सकता है। किसी देश के विभिन्न राज्यों के लिए अलग-अलग वीजा का प्रावधान कहां तक जायज और तर्कसंगत है। ये सब ऐसे मुद्दे हैं जिनके समाधान के अभाव में द्विपक्षीय संबंधों के मजबूत होने में और भी अधिक वक्त लगने की संभावना है और इस वक्त का दायरा जितना लंबा होता जाएगा भारत की मुश्किलें और भी अधिक बढ़ती जाएंगी।
        बहरहाल वेन जियाबाओ ने भारत के साथ इन महत्वपूर्ण मुद्दों पर बात करना भले ही जरुरी ना समझा हो , व्यापारिक मसलों पर बात करने से वे नहीं चूके। भारत के साथ द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने के लिए उन्होनें व्यापार बढ़ाने पर जोर दिया । साथ ही साथ ग्रीन टेक्नालाजी , दोनों देशों के बीच बहने वाली नदियों के हाइड्रोलाजिकल डाटा , मीडिया और सांस्कृतिक आदान प्रदान और बैंकिंग क्षेत्र में परस्पर सहभागिता के मुद्दों पर दोनों देशों के बीच समझौता हुआ।
        लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा दोनों देशों के बीच के सामरिक रिश्ते को सुधारना है। सामरिक मुद्दों का समाधान होते ही दोनों देशों के आपसी संबंध स्वत: ही ठीक हो जाएंगे। लेकिन चीन जबतक भारत को पड़ोसी देश मानने की बजाय सामरिक प्रतिद्वन्दी और अपने उत्पाद बेचकर मुनाफा कमाने वाला बाजार मात्र मानता रहेगा , ये समस्याएं कभी भी खत्म नहीं होंगी।   




रविवार, 12 दिसंबर 2010

लोकतंत्र का राजकुमार

यह कुछ अजीब था
अब आप तय कीजिए
कि क्या अजीब था
लोकतंत्र अजीब था
या राजकुमार अजीब थे
या इन दोनों के साथ-साथ होने की
परिस्थितियां अजीब थी

जो भी हो
लेकिन वह था
अब वह था तो था
यही कि लोकतंत्र था
और राजकुमार भी थे
वे झोपड़ियों में जाते थे
और झोपड़ियां उपकृत हो जाती थीं
यह कहना तो मुश्किल था
कि आगे वे कभी जलाई नहीं जाएंगी
मगर कुछ दिनों के लिए जलने से  बच ही जाती थीं

उस एक दिन अच्छा खाना बनता था
जाने कहां से एक चारपाई आ जाती थी
राजकुमार के सोने के लिए
ख़बर बनती थी
राजकुमार बांस की खटिया पर सोए
जैसे सारा देश पलंग पर सोता हो

वे दाल-रोटी खाते थे और
गरीबों को दाल-रोटी मुहाल हो जाती थी
कारों की खरीदारी बढ़ जाती थी
दालों की खरीदारी घट जाती थी

पहले यह सब खेल जैसा लगता था
विरोधी दलों और प्रतिपक्षी बुद्धिजीवियों को ही नहीं
उनकी सरकार को भी
लेकिन धीरे-धीरे सबको लगने लगा
यह खेल है
मगर खेल जैसा कोई खेल नहीं
यह तो लोकतंत्र का खेल है
जिसे बादशाहत पाने के लिए खेलना जरुरी है
भावनाओं से खेलना
सपनों से खेलना
हथियारों से खेलने से ज्यादा खतरनाक होता है

राजकुमार को सब पता था
कहां कौन सा खेल खेलना जरुरी है
अब यह अचानक तो हुआ नहीं था
कि वे लोकतंत्र के राजकुमार थे
नागरिकों के जनता और फिर
निरीह मतदाताओं मे बदल जाने
समाज के वापस समुदाय में तब्दील हो जाने
की त्रासद प्रक्रियाओं को वे जानते-बूझते थे
आखिर उनके पिता भी तो राजकुमार थे

वे जनतंत्र के पेच-ओ-खम को समझ रहे थे
एक झटके में राज हथियाने पर
दूसरे झटके से उसे खोना भी पड़ता है
इसीलिए धीरे-धीरे कदम बढ़ा रहे थे

वे पक्ष भी थे और प्रतिपक्ष भी
हमारे समय के आईने में  उन्हें पहचानना
हमारी भाषा के मुहावरों में उन्हें प्रकट करना
असंभव नहीं तो कठिन जरुर था

जनता अब भी उनकी सबसे बड़ी मुश्किल थी
मगर सरकार भी कम मुश्किल नहीं थी
गृहमंत्री बनैला सूअर था
जिसे भ्रम था कि वह वराहावतार है
और पृथ्वी उसके दो नुकीले दांतों पर टिकी है
वित्तमंत्री जंगली हाथी था
जिसे बुढ़ापे में कच्ची शराब की लत लग लई थी
और वह महुए की तलाश में
जंगल के वाशिंदो के घर तोड़ डालता था
डर के मारे लोगबाग पेड़ों पर रहने लगे थे

और प्रधानमंत्री

वह तो एक मेटाफर था
उस लोकतंत्र में किसी भी मतदाता ने
किसी भी पद के लिए
उसे कभी भी नहीं चुना था
फिर भी वह प्रधानमंत्री था
इसीलिए वह जनता की नहीं
उन लोगों की चिंता करता था
जिनकी बदौलत वह था

लोकतंत्र इतना भर तो था ही
कि इस बात पर गहरे मतभेद थे
वह किसकी बदौलत प्रधानमंत्री था
और बहस जारी थी

अब ऐसे में राजकुमार का
सियार या लकड़बघ्घे की जगह
आदमी बने रहना कितना कठिन था

किसान गोलियां खा रहे थे
कुछ बंदूकों की
कुछ जहर की
आदिवासी भूख से बिलबिलाने
या बूट के नीचे दबकर छटपटाने की
लोकतांत्रिक नियति से बाहर आने की कोशिश कर रहे थे

एक कवयित्री जुल्मी कानून के खिलाफ
बरसों से अनशन पर बैठी थी
दिल्ली में लोग उसका नाम तक भूलने लगे थे
क्योंकि उसके पीछे कोई एनजीओ नहीं था
जो उसकी याद दिलाने के लिए
राजधानी में मणिपुरी नाच कराता

उत्तर-आधुनिक बुद्धिजीवी
अपने-अपने थूथन पर नए-नए विचार चिपकाए
इधर-उधर घूम रहे थे
कि अब कहीं कोई संघर्ष नहीं है
समाज उनके एनजीओ से ही बदलेगा
वे बाजार विरोधी विचारों से
अपना बाजार बना रहे थे
जैसे राजकुमार सरकार विरोधी विचारों से
अपना जनाधार बढ़ा रहे थे

वे चुनाव में वोट की उगाही से पहले
बार-बार तगादे पर निकलते थे
एक दिन अलीगढ़ के किसानों के बीच चले गए थे
जिन पर कुछ ही दिन पहले गोलियां बरसाई गई थीं
वहां ' नोएडा ' के कुख्यात बिल्डर को
धरने पर बैठा देख खुश हुए थे
और आदिवासियों के आंसू पोछने के लिए
नियमगिरि की ओर चल पड़े थे

उन्हें पता तो रहा ही होगा
कि उसी सूबे में उदयगिरि और खंडगिरि ही नहीं
एक धवलगिरि भी है
जहां एक सम्राट सेना के साथ गया था
और उसने क्रूरता का वह इतिहास रचा था
जिससे इतिहास बदल गया था

वैसे भी उनके भूगोल ज्ञान पर संदेह होता था
और इतिहास की तो खैर उन्हें कोई समझ ही नहीं थी
वे तो यह भी भूल चुके थे
विवाद का ताला किसने खोला था
पहली रथयात्रा किसने निकाली थी

वे जनगण की स्मृति और आकांक्षा
दोनों से खेलना जानते थे
इसीलिए उनका कद उनकी सरकार से उंचा था

हम जिस समय में थे
उसकी रत्ती-रत्ती पर उनका कब्जा था
पर वे तो उस समय को देख रहे थे
जिस समय में हम होना चाहते थे

हम सब कैदी थे
पर उतने भर से उन्हें संतोष नहीं था
वे तो हमारे सपनों को कैद करना चाहते थे
हमने पूरी दिल्ली उन्हें दे दी थी
मगर उनकी नजर तो दंतेवाड़ा पर थी             
                                           हंस के दिसंबर 2010 के अंक में प्रकाशित मदन कश्यप  की   एक कविता
                                            जो वर्तमान भारतीय राजनीति पर कुठाराघात करती है।

शनिवार, 27 नवंबर 2010

आरक्षण की बुनियाद पर टिका महिलाओं का भविष्य

कल टी.वी. देखते हुए अचानक ही नजर एक खबर पर जाकर टिक गई और याद आ गई वर्तिका नंदा की लाईन कि "औरतें भी करती हैं मर्दों का शोषण"।खबर थी कि गुडगांव मेट्रो स्टेशन पर महिलाओं ने पुरुषों को जमकर पीटा।उनका कसूर मात्र इतना भर था कि वो महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बे में यात्रा कर रहे थे।
क्या इस छोटे से कसूर के लिए पुरुष ऐसी सजा के हकदार थे।हालांकि विभिन्न चैनलों की बाइट ने इस सजा को मुकम्मल तौर पर जायज ठहराया लेकिन चैनलों की दृष्टि उस ओर कभी नहीं गई जब महिलाएं पुरुषों का शोषण कर रही होती हैं।मेट्रो ट्रेन की ही बात करें तो सामान्य डिब्बे में महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर यदि कोई वृद्ध पुरुष बैठा होता है तो एक युवती के आ जाने पर भी उसे अपनी सीट खाली करनी पडती है।वह युवती उस वृद्ध पुरुष की अशक्तता को दरकिनार कर देती है और युवती की आरक्षित सीट के लिए उस वृद्ध को खडे होकर यात्रा करनी पडती है।बसों में भी पुरुषों को कमोबेश ऐसी ही स्थिति से दो-चार होना पडता है।
महिलाएं आरक्षण को अपने लिए एक मजबूत हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं लेकिन गैर जरुरी ढंग से और बेजा इस्तेमाल ज्यादा करती हैं।मैं महिला सशक्तिकरण के बिल्कुल भी खिलाफ नहीं हूं परन्तु अधिकारों का दुरुपयोग करके सशक्तिकरण का राग अलापना अतार्किक और गैरजरुरी है।
यदि भारतीय परिदृश्य की ही बात करें तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक जितनी भी महिलाओं का नाम उल्लेखनीय है उनमें से किसी ने भी आरक्षण रुपी बैसाखी का सहारा नहीं लिया है। विद्योतमा हो या गार्गी,रानी लक्ष्मीबाई  हो या रानी दुर्गावती,इंदिरा गांधी हो या सोनिया गांधी या प्रतिभा पाटिल,किरण बेदी हो या इंदिरा नूई,मन्नू भंडारी हो या प्रभा खेतान,महाश्वेता देवी हो या मेधा पाटकर या फिर अरुंधती राय,ये महिलाएं अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम स्थान रखती हैं परन्तु यह मुकाम हासिल करने के लिए उनके पास आरक्षण की बैसाखी नहीं थी।
आरक्षण से सफलता मिलने के बाद किसी भी महिला ने कोई भी उल्लेखनीय कार्य किया हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है हां अधिकारों के दुरुपयोग के हजारों उदाहरण रोज देखने को मिल जाते हैं।इसलिए आरक्षण को अपना अधिकार समझने की बजाय उसके मूल उद्देश्य को समझना ज्यादा बेहतर होगा।ग्रामीण महिलाओं के लिए आरक्षण बेहद जरुरी है परन्तु इसके दुरुपयोग को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता है।

रविवार, 14 नवंबर 2010

सू-ची की रिहाई के मायने

अंतराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में म्यांमार(बर्मा) में आंग-सान-सू-ची की रिहाई वहां पर लोकतंत्र के स्थापित होने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है।सू-ची लगभग 15 वर्षों से अपने ही घर में नजरबंद थीं और शनिवार को उनकी नजरबंदी का आदेश वापस ले लिया गया है।गौरतलब है कि बर्मा के सर्वोच्च सैन्य शासक जुंटा पर सू-ची की रिहाई के लिए कई वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय दबाव बन रहा था और अंतत: जुंटा ने शनिवार की शाम को सू-ची की रिहाई के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए।लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना कि बर्मा का सैन्य प्रशासन कमजोर पड़ रहा है, जल्दबाजी होगी।
म्यांमार में  सन् 1990 में लगभग 30 वर्षों के बाद स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुए थे जिसमें आंग-सान-सू-ची के नेतृत्व वाली पार्टी नेशनल लीग विजयी हुई थी।लेकिन देश के तत्कालीन सैन्य शासन ने नेशनल लीग को सत्ता सौपने से इंकार कर दिया।तमाम विरोधों और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव की परवाह न करते हुए सैन्य शासक जुंटा ने लोकतंत्र के समर्थकों को जेल में डलवा दिया ।                                 आंग-सान-सू-ची ने बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना करने के लिए विगत 21 वर्षों में से 15 वर्षों की जेल या नजरबंदी की यातना सही है । सू-ची अपनी बीमार माँ की देख-रेख के लिए 1988 में  बर्मा वापस लौटीं और देश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष प्रारंभ किया । इससे क्षुब्ध होकर  तत्कालीन शासन ने सू-ची को 1988 में नजरबन्द करने का आदेश दिया .
नजरबंदी  के बावजूद भी सू-ची की पार्टी 1990 के आम चुनावों में भारी अंतर से विजयी रही परन्तु सैन्य शासन ने उन्हें सत्ता सौपने से इंकार कर दिया ।लोकतंत्र की स्थापना करने के प्रयासों के कारण ही सू -ची को वर्ष 1993 का शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया ।वर्ष 1995 में बर्मा की सरकार ने सू-ची की नजरबंदी हटा ली परन्तु उन्हें किसी भी राजनितिक गतिविधियों में शामिल होने से प्रतिबंधित कर दिया गया । पुनः सन् 2000 तथा 2003 में सू-ची को नजरबन्द करने का आदेश दिया गया और अंततः 13 नवम्बर 2010 को सू-ची पर से प्रतिबन्ध पूर्णत हटा लिया गया है।
आंग-सान-सू-ची की इस रिहाई को अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल हो रहा है । एकतरफ जहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें अपना हीरो कहा है वहीं दूसरी ओर भारतीय विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा ने इसे लोकतंत्र की जीत कहते हुए सू-ची को बधाई दी है । अब बर्मा में यह देखना खासा  दिलचस्प होगा कि 20 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद हुए चुनावों में जब वहां की जनता ने सैन्य शासन को मंजूरी दे दी है तो वहां पर लोकतंत्र का प्रारूप कैसा होगा । सू-ची की रिहाई के बाद उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती सभी विपक्षियों को एकत्रित करना और विभिन्न जेलों में बंद लगभग 2200 राजनैतिक बंदियों को मुक्त कराना है।

सू-ची की इस मुहिम के बाद इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि अत्यधिक राजनितिक सक्रियता की स्थिति में सैन्य शासन उन्हें पुनः नजरबन्द न कर दे । हालाँकि अंतरराष्ट्रीय दवाब की पूर्णतया अनदेखी करना  अब बर्मा के सैन्य शासन के लिए शायद ही संभव हो।

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

बताओ कौन यह शोला मेरे आंगन में लाया है...

बताओ कौन यह शोला मेरे आंगन में लाया है...
किसी ने कुछ बनाया था, किसी ने कुछ बनाया है,
कहीं मंदिर की परछाई, कहीं मस्जिद का साया है,
न तब पूछा था हमसे और न अब पूछने आए,
हमेशा फैसले करके हमें यूं ही सुनाया है...

किसी ने कुछ बनाया था, किसी ने कुछ बनाया है...

हमें फुर्सत कहां रोटी की गोलाई के चक्कर से,
न जाने किसका मंदिर है, न जाने किसकी मस्जिद है,
न जाने कौन उलझाता है सीधे-सच्चे धागों को,
न जाने किसकी साजिश है, न जाने किसकी यह जिद है
अजब सा सिलसिला है यह, जाने किसने चलाया है।

किसी ने कुछ बनाया था, किसी ने कुछ बनाया है...

वो कहते हैं, तुम्हारा है, जरा तुम एक नजर डालो,
वो कहते हैं, बढ़ो, मांगो, जरूरी है, न तुम टालो,
मगर अपनी जरूरत तो है बिल्कुल ही अलग इससे,
जरा ठहरो, जरा सोचो, हमें सांचों में मत ढालो,
बताओ कौन यह शोला मेरे आंगन में लाया है।

किसी ने कुछ बनाया था, किसी ने कुछ बनाया है...

अगर हिंदू में आंधी है, अगर तूफान मुसलमां है,
तो आओ आंधी-तूफां यार बनके कुछ नया कर लें,
तो आओ इक नजर डालें अहम से कुछ सवालों पर,
कई कोने अंधेरे हैं, मशालों को दिया कर लें,
अब असली दर्द बोलेंगे जो दिलों में छुपाया है।

किसी ने कुछ बनाया था, किसी ने कुछ बनाया है...
                                                                  प्रसून जोशी की कविता जो युवाओं के लिए प्रेरणास्पद है .
                                                                                     

बुधवार, 18 अगस्त 2010

सरोकारों से दूर होता मीडिया

निर्माता आमिर खान , किरण राव और लेखिका एवं निर्देशिका अनुष्का रिजवी द्वारा निर्देशित फिल्म पीपली लाइव मीडिया के उस सच को बयान करती है जिसकी कल्पना करना भी बेमानी लगता है . आज जब समाज के  विभिन्न अंगों  में मीडिया का दखल  बढ़ता जा रहा है वह अपनी भूमिका का निर्वहन किस गैर जिम्मेदाराना तरीके से कर रहा है  उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है  पीपली लाइव.
                                         यद्यपि पीपली लाइव कर्ज के बोझ तले  दबे किसानों  की कहानी है जो अपना कर्ज चुकाने के लिए अपनी ज़मीन बेचने पर विवश  हैं.इन्हीं  किसानों में एक है नत्था जो अपनी आत्महत्या  के बाद सरकार से मुआवजे के रूप में मिलने वाली रकम से अपनी जमीन बचाने की बात करता है. इस खबर को सुनकर एक कथित खोजी पत्रकार इससे एक ब्रेकिंग  न्यूज़ बना देता है जिसके बाद पूरा मीडिया पीपली गाँव में मेला लगा देता है. अपनी  ब्रेकिंग  न्यूज़ बनाने के दौरान मीडियाकर्मिओ  के अनाप  शनाप  सवालों से नत्था और उसका पूरा परिवार त्रस्त हो जाता है.नत्था मरेगा या नहीं मीडिया के लिए यही सबसे ज्वल्लंत मुद्दा है जबकि उसी गाँव का एक किसान जिसकी ज़मीन कर्ज के दवाब में बिक चुकी है अपनी  रोजी रोटी के इंतजामात के दौरान गड्ढे में गिरकर मर जाता है. मीडिया के लिए यह उतनी बड़ी खबर नहीं है जितना कि नत्था.
                                 फिल्म में एक पत्रकार राकेश जो मीडिया के सरोकारों को पुनः परिभाषित करने कि बात कहता है उसे यह कहकर चुप करा दिया जाता है कि जिस प्रकार एक डॉक्टर और इंजीनियर  अपना काम करते हैं  उसी प्रकार हमें भी अपना काम करना चाहिए और हमारा काम है खबर बनाना न कि सत्य को प्रदर्शित करना.और यदि तुम ऐसा नहीं कर सकते तो और भी रास्ते है तुम्हारे पास. और अंततः  ब्रेकिंग  न्यूज़ बनाने के दौरान उस पत्रकार की मौत हो जाती है जिसको नत्था के रूप में मरा जानकर मीडिया अपने  कर्तव्यों  की इतिश्री कर लेता है.
          इस पूरे प्रकरण में जितना दोष हमारे राजनेताओं का है उससे कहीं  ज्यादा दोष मीडिया का है जो घटना की तह में जाने की बजाये इस बात में ज्यादा दिलचस्पी रखता है कि नत्था मरेगा या नहीं. नत्था बचेगा या नहीं इस सवाल को पूछने  की जहमत किसी  पत्रकार ने नहीं उठाई.
        क्या इस घटनाक्रम में मीडियाकर्मिओं  की ज़िम्मेदारी नहीं बनती की नत्था को आत्महत्या करने से रोके  और सरकार पर इस संमस्या का समाधान करने के लिए दवाब डाले . आखिर टी.आर. पी. बढ़ने के अलावा और भी तो जिम्मेदारियां  है मीडिया पर.

रविवार, 15 अगस्त 2010

स्वतंत्रता कि ६३वीं सालगिरह के मायने

आज स्वतंत्रता कि ६३वीं सालगिरह का जश्न  बहुत ही धूमधाम से मनाया जा रहा है।विगत संध्या पर राष्ट्रपति और थोड़ी ही देर पहले प्रधानमंत्री राष्ट्र कि जनता को संबोधित कर चुके है।उल्लास और उत्साह के इस माहौल में क्या किसी ने यह सोचने की जहमत उठाई कि देश की ७०% जनता जो आज भी गाँव में रहती है और जिसका मुख्य पेशा कृषि है उसके लिए आज की इस स्वंत्रता दिवस के क्या मायने हैं।वो लोग जो खेतों में काम करते हैं वो राष्ट्र की उपलब्धिओं पर गौरवान्वित होने की बजाय अपने खेतों में काम कर रहे होंगे जिससे की शाम की रोजी-रोटी का प्रबंध हो सके।
        आज जब प्रधानमंत्री देशवासिओं से राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन को सफल बनाने के लिए सहयोग की अपील कर रहे हैं वही दूसरी ओर धरती का स्वर्ग कहा जाने वाला कश्मीर हिंसा  की आग में दहक रहा है। क्या कोरा आश्वासन ही कश्मीर में अमन-चैन कायम कर सकता है।
           जब प्रधानमंत्री अपने आर्थिक सुधारों और देश कि बढ़ रही आर्थिक सम्पन्नता का गुणगान कर रहे है वही दूसरी ओर नक्सलवाद से प्रभावित इलाको में नक्सली अपनी आर्थिक और सामाजिक स्थिति को सुदृढ करने के लिए आम लोगों की जाने ले रहे हैं और अपनी जाने  दे रहे है।
       एक तरफ जहा राष्ट्रमंडल खेलों के नाम पर पानी कि तरह पैसा बहाया जा रहा है वही दूसरी ओर झुग्गी-झोपड़ों में रहने वाले गरीबों और भिखारिओं को दिल्ली की सीमा के बाहर खदेड़ा जा रहा है. आखिर इस राष्ट्रमंडल के आयोजन के क्या मायने हैं जिसमें आम आदमी के हितों कि अनदेखी की जा रही हो।
      स्वतंत्रता दिवस के इस अवसर पर केवल झूठी बयानबाजी की बजाय यदि देशहित में कोइ गंभीर कदम उढाया जाए तो ज्यादा बेहतर होगा।आज के राजनेताओं के इस बयानबाजी पर जहीर कुरैशी का  एक शेऱ है
                                              बयानबाजी मुखर युद्ध है सियासत में,
                                              बदलती रहती है बयान कि सीमा यहाँ।

            

शनिवार, 14 अगस्त 2010

इब्तिदा

आखिरकार मैं  भी ब्लॉगरों की जमात में शामिल हो ही गया.और ऐसा हो भी क्यों न? भूमंडलीकरण के इस युग में जब दुनिया और भी अधिक छोटी होती जा रही है और लोग और भी अधिक संवेदनहीन तथा स्वार्थपरक,लोगो तक अपने विचारो की अभिव्यक्ति का इससे बेहतर माध्यम और हो भी क्या सकता है.
                                                              कोशिश यही रहेगी कि इस माध्यम से अधिक से अधिक लोगों तक अपनी बातों को निष्ठापूर्वक  रख सकूँ