सोमवार, 17 जनवरी 2011

भारतीय अर्थव्यवस्था पर खामोश चिंतन

अप्रवासी भारतीय सम्मेलन में भारतीय अर्थव्यवस्था की गौरवपूर्ण उपलब्धि का वर्णन करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री अत्यधिक उल्लसीत थे।विदेशी निवेश को आकर्षित करने के उद्देश्य से उन्होनें वर्ष की आखिरी तिमाही में सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 8.90 प्रतिशत रहने का दावा किया और अगले साल के अंत तक इसके 8.5 9 प्रतिशत के बीच रहने की बात कही।
लेकिन इन सब बातों का उल्लेख करते हुए हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री इस बात को भूल गये कि हमारे देश की 27.5 प्रतिशत आबादी गरीबी रेखा से नीचे है और 79 प्रतिशत से अधिक आबादी 20 रुपये से भी कम की आमदनी पर गुजारा कर रही है।और यही कारण है कि अंतराष्ट्रीय भूख सूचकांक में 84 में से 67 वां स्थान प्रदान किया है।बांग्लादेश,यमन और तिमोर-लेस्टे जैसी मामूली अर्थव्यवस्था वाले देश भी खाद्दान्न असुरक्षा के मामले में भारत से बेहतर स्थिति में है।
हमारे देश के प्रधानमंत्री देश के सकल घरेलू उत्पाद में निरंतर वृद्घि का उल्लेख करते हैं।
परंतु ये इस बात को दरकिनार कर देते हैं कि सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि के साथ ही साथ बेरोजगारी की दर और मुद्रास्फीति की दर में भी वृद्धि हुई है। सन् 2009 के अंत में भारत के सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 6.50 प्रतिशत थी जो सन् 2010 के अंत में बढ़कर 8.90 प्रतिशत हो गई लेकिन इसके साथ ही साथ सन् 2009 में बेरोजगारी दर 6.80 प्रतिशत थी जो सन् 2010 में बढ़कर 10.70 प्रतिशत हो गई। सन् 2010 के अंत में मुद्रास्फीति की दर 8.33 प्रतिशत थी। खाद्दान्न के मामले में तो मुद्रास्फीति की दर दहाई अंक को पार करके 16.91 प्रतिशत तक पहुंच गई है।
वर्तमान में देश के औद्दोगिक विकास की दर भी पिछले डेढ़ साल के न्यूनतम स्तर पर है। विनिर्माण क्षेत्र में निराशाजनक प्रदर्शन के कारण नवंबर 2010 में यह मात्र 2.7 फीसदी दर्ज की गई जबकि अक्टूबर 2010 में इसकी वृद्धि दर 11 फीसदी थी और इसके पिछले वर्ष नवंबर 2009 में यह 11.3 फीसदी रही थी।
इन सब बातों को भूलने के साथ-साथ प्रधानमंत्री यह भी भूलते जा रहे हैं कि भारत की उत्पादन की वृद्धि दर भी कम होती जा रही है। इसका उल्लेख करते हुए वरिष्ठ पत्रकार परंजय गुहा ठाकुरता ने हिन्दुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट में लिखा है कि आज भारत में जितनी रकम उत्पादन में लगी है उसका 5 गुना निवेश सट्टा बाजार में है और उसकी 10 गुनी पूंजी डेरिवेटिव्स में लगी हुई है। अर्थात 16 आने में से 15 आना रकम जुए में खर्च की जा रही है और 1 आना रकम के सहारे उत्पादन क्षमता को बढाने पर बल दिया जा रहा है। यह पूंजीवाद का और भी विकृत रुप जुआरी पूंजीवाद है।
ऐसी स्थिति में जब उत्पादन की बजाए जुए में ज्यादा पूंजी लगी हो तो जुए से प्राप्त मुनाफे का आम आदमी के जीवन में कितना उपयोग है। यदि सेंसेक्स 20,000 के आंकड़े को पार कर जा रहा है तो भी आम आदमी उसके लाभ से अछूता ही रह जा रहा है। उसके लिए सेंसेक्स के बढ़ने की बजाए मुद्रास्फीति की दर में कमी ज्यादा लाभदायक होगी। सेंसेक्स 20,000 के पार होने के साथ-साथ यदि मुद्रास्फीति की दर और विशेष कर खाद्दान्न मुद्रास्फीति की दर में कमी नहीं होगी तो ऐसा विकास बेमानी ही है।
भारतीय लोकतंत्र ने सभी को समानता के अवसर दिए हैं। इस अवसर की उप्लब्धि इसी में है कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति की न्यूनतम मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति की जाए। मनरेगा जैसी योजनाओं ने गरीबों में आशा की एक किरण तो जगाई है लेकिन इसके साथ ही साथ महंगाई भी इतनी तेजी से बढ़ी है कि वो अपने लिए दो जून का खाना भी ठीक ढंग से नहीं जुटा पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर पर इतराने की अपेक्षा बेरोजगारी की वृद्धि दर और खाद्य सुरक्षा एवं मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के प्रयास किए जांए तो यह आम आदमी के हितों के साथ-साथ भारतीय लोकतंत्र के हित में भी होगा।  


1 टिप्पणी:

  1. अच्छा और रोचक लेख है। देश की आर्थिक स्थिति पर आपकी पैनी नज़र प्रसंशनीय है ..

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