भारत आज भी एक कृषि प्रधान देश है जिसकी लगभग 65 प्रतिशत आबादी कृषि कार्यों में संलग्न है. यही आबादी अपनी मेहनत की बदौलत पूरे देश की खाद्य आवश्यकताओं की पूर्ति करती है . इसके अतिरिक्त 2 .9 करोड़ लोग भोजन और भोजन से संबंधित सामग्री का व्यापार करते हैं. लेकिन हालिया स्थिति ये है कि इस कृषि उत्पादक और इससे सम्बंधित व्यापारी वर्ग को इन उत्पादों से दूर करने की साजिश रची जा रही है.
किसान अपने उत्पाद का स्वयं ही मालिक होता है .उसे अपनी मेहनत की कमाई को निर्धारित करने का पूरा पूरा हक़ बनता है . लेकिन सरकार कृषि उत्पादों का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करते समय किसानों से उनकी राय लेने में परहेज करती है. वहीँ दूसरी तरफ यही सरकार निजी कंपनियों के हितों का खयाल करते हुए उनके मनमाफिक पेट्रोलियम पदार्थों का दाम बढ़ाने के लिए सदैव तत्पर रहती है . गन्ना किसान अपनी जायज मांगों को मनवाने के लिए जंतर-मंतर पर इकट्ठा होते हैं तो उनकी बात अनसुनी कर दी जाती है .यही नहीं मीडिया में उनकी नकारात्मक छवि गढ़ने की भरपूर कोशिश की जाती है . जबकि दूसरी तरफ यदि तेल कम्पनियाँ अपने व्यावासिक हितों की अनदेखी का रोना रोती हैं तो यही सरकार सामाजिक सरोकारों को धता बताते हुए तुरंत ही दाम बढ़ाने का फैसला ले लेती है और मीडिया घराने भी इस सरकारी फैसले को सही ठहराने के लिए अपना संपादकीय किसी संपादक से नहीं बल्कि किसी तेल कम्पनी के सी . ई .ओ .से लिखवाते हैं .
इन सभी बातों के गहरे निहितार्थ हैं.यह कृषि उत्पादों और कृषि उत्पादन के संसाधनों (जिसमे सबसे महत्वपूर्ण जमीन है ) को औद्योगिक घरानों के सुपुर्द करने की सोची -समझी रणनीति है. इस बात को साबित करने के लिए आवश्यक साक्ष्य भी मौजूद हैं.
बाजार का विश्लेषण करने वाली एक कम्पनी आर.एन.सी.ओ.एस. की हालिया रिपोर्ट के अनुसार भोजन का बाजार भारत में 7.5 प्रतिशत की दर से हर साल बढ़ रहा है और वर्ष 2013 में यह 330 बिलियन डालर के बराबर होगा. एग्रीकल्चयरल एण्ड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट्स एक्सपोर्ट डेवलमेन्ट कार्पोरेशन अथारिटी के मुताबिक वर्ष 2014 में भारत से 22 बिलियन डालर के कृषि उत्पाद निर्यात हो सकते हैं जबकि वर्ष 2009-10 में फूलों, फलों, सब्जियों, पशु उत्पाद, प्रोसेस्ड फूड और बारीक अनाज का निर्यात 7347.07 मिलियन डालर के बराबर हुआ.
सरकार के द्वारा निर्धारित अनुमानों के अनुसार हरित क्रांति लाने के लिए कृषि उत्पादन में वृद्धि के साथ साथ खाद्य प्रसंस्करण (प्रोसेसिंग) अनिवार्य शर्त है. इसके लिए सरकार की डेढ़ लाख करोड़ की रकम खर्च करने की योजना है . जाहिर है कि सामान्य किसान किसी तरह से उन्नत बीज की व्यवस्था तो कर लेगा लेकिन उसके पास इतने संसाधन नहीं है की वो अपने उत्पादों को प्रासंकारित (फलों और सब्जियों को कई दिनों तक तजा रखने की विधि ) कर सके. किसानों की इस कमजोरी का फायदा उठाने की ताक मेंकई कम्पनियाँ लगी हुई हैं.वालमार्ट, रिलायंस, भारती, ग्लेक्सो स्मिथ कंज्यूमर हेल्थ केयर, नेस्ले, केविनकरे, फील्ड फ्रेश फूड, डेलमोंटे, बुहलर इंडिया, पेप्सीको और कोका कोला ऐसी ही कम्पनियाँ हैं जो भारत के खाद्य साम्राज्य पर अपना अधिपत्य ज़माने की कोशिश में लगी हुई हैं.
भारत के खाद्य प्रसंस्करण मंत्री सुबोधकांत सहाय के मुताबिक भारत सरकार कृषि में अगले 5 साल में 21.9 बिलियन डॉलर का निवेश करेगी. विश्लेषकों के अनुसार खाद्य प्रसंस्करण के क्षेत्र का हिस्सा 6 प्रतिशत से 20 प्रतिशत होने की पूरी संभावनायें हैं और दुनिया के खाद्यान्न प्रसंस्करण बाजार में भारत की हिस्सेदारी 1.5 प्रतिशत से बढ़कर 3 प्रतिशत हो जायेगी. जहां तक इसमें प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का मसला है; यह बढ़कर 264.4 मिलियन डालर का हो गया है. केवल 8 कम्पनियां (केविनकरे, नेस्ले, ग्लेक्सो, यम! रेस्टोरण्ट्स इंडिया, फील फ्रेश फूड, बहलर इण्डिया, पेप्सी और कोकोकोला) ही अगले दो सालों में 1200 मिलियन डालर का निवेश खाने-पीने का सामान बनाने वाले उद्योग में करने वाली हैं. इन्हें तमाम रियायतों के साथ ही पहले 5 वर्षों तक उनके पूरे फायदे पर 100 फीसदी आयकर में छूट और फिर अगले पांच वर्षों तक 25 फीसदी छूट मिलेगी. एक्साइज ड्यूटी को भी आधा कर दिया गया है यानी सरकारी नीतियों के तहत औद्योगिक घरानों की सुविधाओं में किसी प्रकार की कोताही नहीं की गई है लेकिन इन सभी बातों के मूल में जो उत्पादक किसान है उसके हितों की रक्षा के लिए कोई कदम नहीं उठाये गए हैं.
मुक्त अर्थव्यवस्था की पैरोकारी करने के क्रम में पिछले दो दशक के दौरान भारत के योजना आयोग और आर्थिक सलाहकारों ने मिलकर औद्योगिक विकास की ऐसी संरचना खड़ी कर ली है जिसमे औद्योगिक घरानों को अपने व्यावासिक हितों को पूरा करने में किसी प्रकार की असुविधा न हो. व्यावासिक घरानों के हितों को पूरा करने के क्रम में ही सरकार ने सन 2005 में कंपनियों को सीधे किसानों से अनाज खरीदने की खुली छूट दे दी . परिणाम यह हुआ कि कंपनियों ने इतनी ज्यादा मात्र में अनाज का भण्डारण कर लिया कि देश में अनाज की कमी हो गई और अपनी ही जरूरतें पूरी करने के लिए भारत सरकार को दो गुना दामों पर 53 लाख टन अनाज विदेश से आयात करना पड़ा .
इसके अलावा किसानों के लिए इससे बड़ी विडम्बना क्या हो सकती है कि पिछले 4 वर्षों में अनाज की खुले बाजार में कीमतें 70 से 120 प्रतिशत तक बढ़ीं हैं पर सरकार ने किसानों के लिये न्यूनतम समर्थन मूल्य में महज 20 प्रतिशत की ही बढ़ोत्तरी की है. सबसिडी कम करने की नीति के तहत अब यूरिया और डीएपी पर दी जाने वाली रियायत भी खत्म हो चुकी है, डीजल के दाम निरंतर बढ़ रहे हैं और बिजली की कीमतें पिछले पांच वर्षों में 190 फीसदी बढ़ाई जा चुकी है. इससे गेहूं की उत्पादन की लागत अब लगभग 1650 रूपये पर पहुंच गई है परन्तु भारत सरकार ने इस वर्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है 1120 रूपये. किसान के लिये दालों का समर्थन मूल्य है 32 रूपये पर बाजार में दालों की कीमत है 60 से 90 रूपये.
गेहूं से रोटी नहीं बल्कि डबलरोटी, नूडल्स, बिस्किट और डिब्बा बंद खाद्य पदार्थ बनाने के लिये उपयोग किया जाना प्राथमिक बना दिया गया है. लगभग 10 लाख हेक्टेयर सबसे उपजाऊ जमीन पर फूल और ऐसे फल उगाये जा रहे हैं; जिनसे रस, शराब और विलासिता के पेय बनते हैं.इन सभी बातों के एक ही निहितार्थ निकलते हैं कि सरकार ही किसानों की आत्महत्या का इकलौता सबसे बड़ा कारण है .और ये परिस्थितियां जान -बूझ कर पैदा की गईं हैं जिससे किसानों को कृषि कार्यों से विमुख करके उनकी जमीनों का सौदा चंद पूंजीपतियों के हाथों किया जा सके.
बावजूद इन सभी बदलावों के, वर्त्तमान यू.पी. ए. सरकार की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस का नारा नहीं बदल पाया है और वो आज भी बड़े गर्व से कहती है कि
कांग्रेस का हाथ, आम आदमी के साथ
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