गुरुवार, 14 जुलाई 2011

साख बचाने की एक और लचीली कवायद

भ्रष्टाचार, महंगाई,लोकपाल बिल और उसके  बाद तेलंगाना मुद्दा, वर्तमान यूपीए सरकार  के  गले की  फांस बनते जा रहे हैं। शायद इन्हीं सब विवादों का  निपटारा करने के  उद्देश्य से मनमोहन सिंह ने अपनी  कैबिनेट में फेरबदल करने का निर्णय किया । लेकिन  अपनी गिरती हुई साख को  बचाने की कवायद में जुटी कांग्रेस का यह कदम बेहद ही लचीला और निराशाजनक है। इसके पीछे तमाम तर्क दिये जा सकते हैं ।


जिन मुद्दों पर सरकार  की  सबसे ज्यादा किरकिरी  हुई है और जिनके कारण उसे बार-बार लोगों के  विरोध का  सामना करना पड़ा है, उनके  विभागों में कोई फेरबदल नहीं किया जाना इस बात का  पुख्ता सबूत है कि सरकार अपनी गिरती साख को  बचाने की कोई कामयाब कोशिश  नहीं  कर  रही है। चाहे वह महंगाई से संबंधित वित्त मंत्रालय हो ,खाद्य पदार्थों से संबंधित कृषि  मंत्रालय हो या फिर लोकपाल बिल के  धुर विरोधी कपिल सिब्बल का  दूरसंचार मंत्रालय , इनके  साथ कोई बदलाव नहीं किया  गया  है। लेकिन  पर्यावरण संबंधी प्रोजेक्ट्स पर अप्रभावी ही सही किन्तु  समय समय पर रोक  लगाने वाले मंत्री जयराम रमेश के  विभाग को  बदलकर उन्हें ग्रामीण मंत्रालय का  कार्यभार दे दिया गया है। इसके  अलावा भी कई ऐसे मंत्री हैं जिनके  विभागों में अप्रत्याशित रुप से परिवर्तन कर  दिया गया है। विरप्पा मोइली और विलासराव देशमुख के  विभागों को परिवर्तित कर दिया गया है और कुछ  लोगों जैसे सलमान खुर्शीद, पी.के . बंसल और आनंद शर्मा को अतिरिक्त कार्यभार सौंपा गया है।
यहां तक का किया  गया फेरबदल महज एक  खानापूर्ति करता नजर आता है लेकिन  उत्तर प्रदेश से कांग्रेस  सांसद बेनी प्रसाद वर्मा को कैबिनेट में शामिल करने के  पीछे गहरे निहितार्थ हैं। ये कवायद 2012   के  विधानसभा चुनाव के ही मद्देनजर की गई  है। स्पष्ट है कि यूपीए को  जनता से संबंधित मुद्दों से नहीं बल्कि  जनता से मिलने वाले वोटों से ज्यादा लगाव है ।
इसके  अतिरिक्त अपने गठबंधन के सबसे प्रमुख सहयोगी दल डीएमके के  लिए सीटें खाली रखकर कांग्रेस  ने तो अपने गठबंधन का पूरी ईमानदारी से निर्वहन किया  है लेकिन  डीएमके  सरकार के  प्रति कितनी  निष्ठावान है ,इसका  उदाहरण ए.राजा ,दयानिधि मारन और कनिमोझी के कृत्यों से साफ झलकता है। उम्मीद है कि आने वाले डीएमके  कोटे के  मंत्री इतनी ही शिद्दत से अपनी निष्ठा जाहिर करते रहेंगे।

लेकिन  इन सभी बातों के  अलावा कांग्रेस आलाकमान का  ये फैसला कुछ कांग्रेसियों को ही रास नहीं आ रहा है। एक  तरफ जहां विरप्पा मोइली अपना विभाग बदलने को  लेकर नाराजगी जता चुके  हैं (हालांकि  बाद में वो अपने बयान से मुकर भी गए हैं) वहीं दूसरी तरफ मंत्रिमंडल में शामिल गुरुदास कामत ने तो  मंत्रिमंडल से इस्तीफा ही दे दिया है । वो पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय जैसे कम महत्व वाले मंत्रालय का  पदभार मिलने के  कारण असंतुष्ट थे। एक  और मंत्री श्रीकान्त  जेना ,जिन्हें सांख्यिकी और कार्यक्रम  कार्यान्वयन विभाग दिया गया था ,ने भी शपथ ग्रहण समारोह में  शिरकत नहीं की । एम .एस .गिल भी अपना मंत्रालय छिनने के बाद आलाकमान से नाराज बताये जा रहे हैं । हालांकि उनको हटाने के पीछे राष्ट्र मंडल खेल घोटालों में उनके
नाम आने को जिम्मेदार माना जा रहा है।


आलाकमान द्वारा लिए गए ये फैसले जब कांग्रेस के  नेताओं को  ही रास नहीं आ रहे तो  ये फैसले  देश हित में कितने प्रभावशाली होगें, ये तो वक्त बताएगा लेकिन अगर यूपीए ऐसी ही मनमानी करती रही और लोकहित को दरकिनार करके गठबंधन की  दुहाई देकर अपनी सरकार बचाने का यत्न करती रही तो वो दिन दूर नहीं है जब इसी गठबंधन सरकार के  मंत्री कांग्रेस की  ताबूत में आखिरी कील ठोकने का काम करेंगे । 


सत्ता होती ही भोगने के  लिए है लेकिन  भोगने वाली सत्ता का  उदाहरण राजतंत्र में देखने को  मिलता है लोकतंत्र में नहीं। यदि वर्तमान सरकार  यह महसूस करने की  स्थिति में है कि वो एक  लोकतंत्र का प्रतिनिधित्व कर रही है तब तो उसे जनता की भावना का  खयाल रखना ही होगा अन्यथा जनता तो अब मजबूरी में ही सही लेकिन  ये मानकर चल रही है कि वो एक  निरंकुश राजतंत्र के साये में रहने को  लेकर अभिशप्त है जहां फैसले आम सहमति से लिए नहीं बल्कि  थोपे जाते हैं।





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