क्या इस छोटे से कसूर के लिए पुरुष ऐसी सजा के हकदार थे।हालांकि विभिन्न चैनलों की बाइट ने इस सजा को मुकम्मल तौर पर जायज ठहराया लेकिन चैनलों की दृष्टि उस ओर कभी नहीं गई जब महिलाएं पुरुषों का शोषण कर रही होती हैं।मेट्रो ट्रेन की ही बात करें तो सामान्य डिब्बे में महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर यदि कोई वृद्ध पुरुष बैठा होता है तो एक युवती के आ जाने पर भी उसे अपनी सीट खाली करनी पडती है।वह युवती उस वृद्ध पुरुष की अशक्तता को दरकिनार कर देती है और युवती की आरक्षित सीट के लिए उस वृद्ध को खडे होकर यात्रा करनी पडती है।बसों में भी पुरुषों को कमोबेश ऐसी ही स्थिति से दो-चार होना पडता है।
महिलाएं आरक्षण को अपने लिए एक मजबूत हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं लेकिन गैर जरुरी ढंग से और बेजा इस्तेमाल ज्यादा करती हैं।मैं महिला सशक्तिकरण के बिल्कुल भी खिलाफ नहीं हूं परन्तु अधिकारों का दुरुपयोग करके सशक्तिकरण का राग अलापना अतार्किक और गैरजरुरी है।
यदि भारतीय परिदृश्य की ही बात करें तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक जितनी भी महिलाओं का नाम उल्लेखनीय है उनमें से किसी ने भी आरक्षण रुपी बैसाखी का सहारा नहीं लिया है। विद्योतमा हो या गार्गी,रानी लक्ष्मीबाई हो या रानी दुर्गावती,इंदिरा गांधी हो या सोनिया गांधी या प्रतिभा पाटिल,किरण बेदी हो या इंदिरा नूई,मन्नू भंडारी हो या प्रभा खेतान,महाश्वेता देवी हो या मेधा पाटकर या फिर अरुंधती राय,ये महिलाएं अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम स्थान रखती हैं परन्तु यह मुकाम हासिल करने के लिए उनके पास आरक्षण की बैसाखी नहीं थी।
आरक्षण से सफलता मिलने के बाद किसी भी महिला ने कोई भी उल्लेखनीय कार्य किया हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है हां अधिकारों के दुरुपयोग के हजारों उदाहरण रोज देखने को मिल जाते हैं।इसलिए आरक्षण को अपना अधिकार समझने की बजाय उसके मूल उद्देश्य को समझना ज्यादा बेहतर होगा।ग्रामीण महिलाओं के लिए आरक्षण बेहद जरुरी है परन्तु इसके दुरुपयोग को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता है।