शनिवार, 27 नवंबर 2010

आरक्षण की बुनियाद पर टिका महिलाओं का भविष्य

कल टी.वी. देखते हुए अचानक ही नजर एक खबर पर जाकर टिक गई और याद आ गई वर्तिका नंदा की लाईन कि "औरतें भी करती हैं मर्दों का शोषण"।खबर थी कि गुडगांव मेट्रो स्टेशन पर महिलाओं ने पुरुषों को जमकर पीटा।उनका कसूर मात्र इतना भर था कि वो महिलाओं के लिए आरक्षित डिब्बे में यात्रा कर रहे थे।
क्या इस छोटे से कसूर के लिए पुरुष ऐसी सजा के हकदार थे।हालांकि विभिन्न चैनलों की बाइट ने इस सजा को मुकम्मल तौर पर जायज ठहराया लेकिन चैनलों की दृष्टि उस ओर कभी नहीं गई जब महिलाएं पुरुषों का शोषण कर रही होती हैं।मेट्रो ट्रेन की ही बात करें तो सामान्य डिब्बे में महिलाओं के लिए आरक्षित सीट पर यदि कोई वृद्ध पुरुष बैठा होता है तो एक युवती के आ जाने पर भी उसे अपनी सीट खाली करनी पडती है।वह युवती उस वृद्ध पुरुष की अशक्तता को दरकिनार कर देती है और युवती की आरक्षित सीट के लिए उस वृद्ध को खडे होकर यात्रा करनी पडती है।बसों में भी पुरुषों को कमोबेश ऐसी ही स्थिति से दो-चार होना पडता है।
महिलाएं आरक्षण को अपने लिए एक मजबूत हथियार के तौर पर इस्तेमाल करती हैं लेकिन गैर जरुरी ढंग से और बेजा इस्तेमाल ज्यादा करती हैं।मैं महिला सशक्तिकरण के बिल्कुल भी खिलाफ नहीं हूं परन्तु अधिकारों का दुरुपयोग करके सशक्तिकरण का राग अलापना अतार्किक और गैरजरुरी है।
यदि भारतीय परिदृश्य की ही बात करें तो प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक जितनी भी महिलाओं का नाम उल्लेखनीय है उनमें से किसी ने भी आरक्षण रुपी बैसाखी का सहारा नहीं लिया है। विद्योतमा हो या गार्गी,रानी लक्ष्मीबाई  हो या रानी दुर्गावती,इंदिरा गांधी हो या सोनिया गांधी या प्रतिभा पाटिल,किरण बेदी हो या इंदिरा नूई,मन्नू भंडारी हो या प्रभा खेतान,महाश्वेता देवी हो या मेधा पाटकर या फिर अरुंधती राय,ये महिलाएं अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठतम स्थान रखती हैं परन्तु यह मुकाम हासिल करने के लिए उनके पास आरक्षण की बैसाखी नहीं थी।
आरक्षण से सफलता मिलने के बाद किसी भी महिला ने कोई भी उल्लेखनीय कार्य किया हो ऐसा मेरी जानकारी में नहीं है हां अधिकारों के दुरुपयोग के हजारों उदाहरण रोज देखने को मिल जाते हैं।इसलिए आरक्षण को अपना अधिकार समझने की बजाय उसके मूल उद्देश्य को समझना ज्यादा बेहतर होगा।ग्रामीण महिलाओं के लिए आरक्षण बेहद जरुरी है परन्तु इसके दुरुपयोग को नजरन्दाज नहीं किया जा सकता है।

रविवार, 14 नवंबर 2010

सू-ची की रिहाई के मायने

अंतराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में म्यांमार(बर्मा) में आंग-सान-सू-ची की रिहाई वहां पर लोकतंत्र के स्थापित होने की दिशा में एक मील का पत्थर साबित हो सकती है।सू-ची लगभग 15 वर्षों से अपने ही घर में नजरबंद थीं और शनिवार को उनकी नजरबंदी का आदेश वापस ले लिया गया है।गौरतलब है कि बर्मा के सर्वोच्च सैन्य शासक जुंटा पर सू-ची की रिहाई के लिए कई वर्षों से अंतर्राष्ट्रीय दबाव बन रहा था और अंतत: जुंटा ने शनिवार की शाम को सू-ची की रिहाई के आदेश पर हस्ताक्षर कर दिए।लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकालना कि बर्मा का सैन्य प्रशासन कमजोर पड़ रहा है, जल्दबाजी होगी।
म्यांमार में  सन् 1990 में लगभग 30 वर्षों के बाद स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव हुए थे जिसमें आंग-सान-सू-ची के नेतृत्व वाली पार्टी नेशनल लीग विजयी हुई थी।लेकिन देश के तत्कालीन सैन्य शासन ने नेशनल लीग को सत्ता सौपने से इंकार कर दिया।तमाम विरोधों और अन्तर्राष्ट्रीय दबाव की परवाह न करते हुए सैन्य शासक जुंटा ने लोकतंत्र के समर्थकों को जेल में डलवा दिया ।                                 आंग-सान-सू-ची ने बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना करने के लिए विगत 21 वर्षों में से 15 वर्षों की जेल या नजरबंदी की यातना सही है । सू-ची अपनी बीमार माँ की देख-रेख के लिए 1988 में  बर्मा वापस लौटीं और देश में लोकतंत्र की स्थापना के लिए संघर्ष प्रारंभ किया । इससे क्षुब्ध होकर  तत्कालीन शासन ने सू-ची को 1988 में नजरबन्द करने का आदेश दिया .
नजरबंदी  के बावजूद भी सू-ची की पार्टी 1990 के आम चुनावों में भारी अंतर से विजयी रही परन्तु सैन्य शासन ने उन्हें सत्ता सौपने से इंकार कर दिया ।लोकतंत्र की स्थापना करने के प्रयासों के कारण ही सू -ची को वर्ष 1993 का शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया ।वर्ष 1995 में बर्मा की सरकार ने सू-ची की नजरबंदी हटा ली परन्तु उन्हें किसी भी राजनितिक गतिविधियों में शामिल होने से प्रतिबंधित कर दिया गया । पुनः सन् 2000 तथा 2003 में सू-ची को नजरबन्द करने का आदेश दिया गया और अंततः 13 नवम्बर 2010 को सू-ची पर से प्रतिबन्ध पूर्णत हटा लिया गया है।
आंग-सान-सू-ची की इस रिहाई को अंतरराष्ट्रीय समर्थन हासिल हो रहा है । एकतरफ जहाँ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने उन्हें अपना हीरो कहा है वहीं दूसरी ओर भारतीय विदेश मंत्री एस.एम.कृष्णा ने इसे लोकतंत्र की जीत कहते हुए सू-ची को बधाई दी है । अब बर्मा में यह देखना खासा  दिलचस्प होगा कि 20 वर्षों के लंबे अंतराल के बाद हुए चुनावों में जब वहां की जनता ने सैन्य शासन को मंजूरी दे दी है तो वहां पर लोकतंत्र का प्रारूप कैसा होगा । सू-ची की रिहाई के बाद उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती सभी विपक्षियों को एकत्रित करना और विभिन्न जेलों में बंद लगभग 2200 राजनैतिक बंदियों को मुक्त कराना है।

सू-ची की इस मुहिम के बाद इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि अत्यधिक राजनितिक सक्रियता की स्थिति में सैन्य शासन उन्हें पुनः नजरबन्द न कर दे । हालाँकि अंतरराष्ट्रीय दवाब की पूर्णतया अनदेखी करना  अब बर्मा के सैन्य शासन के लिए शायद ही संभव हो।